હર મહાદેવ रथ यात्रा सारांश-प्रायः २०,००० वर्षों से श्री जगन्नाथ कई रथ यात्रा का आयोजन हो रहा है, तत्त्व रूप में अनादि और अनन्त है। यह ब्रह्म के स्रष्टा रूप की प्रतिमा है जिसे अव्यय या यज्ञ पुरुष कहते हैं। इसके आधिदैविक (आकाश में), आधिभौतिक (पृथ्वी पर) तथा आध्यात्मिक (शरीर के भीतर) भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। मनुष्य शरीर या विश्व की कोई स्थिर रचना पुर है, जिसका निवासी पुरुष है। पुर का गतिशील रूप रथ है जिसका सञ्चालक वामन या सूक्ष्म ईश्वर है। १. रथ और पुर-पुर का लौकिक अर्थ नगर है। वेद में इसके अर्थ की वृद्धि कर इसका अर्थ अनुष्य शरीर या विश्व की कोई भी रचना है, जो सीमाबद्ध है। अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या (अथर्व, १०/२/३१) अष्टाचक्रं वर्तते एक नेमि (अथर्व,११/४/२२) नवद्वारे पुरे देही हंसो लेलायते बहिः। वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ३/१८) एकचक्रं वर्तते एकनेमि (अथर्व, १०/८/७) शरीर रूपी पुर में ८ चक्र तथा ९ द्वार हैं, हंस रूप आत्मा इस शरीर में है तथा बाहर भी स्थावर-जंगम को चला रहा है। पूरे विश्व को चलाने वाले को एक ही पुरुष मानें तो एक ही नेमि या नियन्त्रक...
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