स्वस्तिवाचन और शान्तिकरण

હર મહાદેવ
|| स्वस्तिवाचन और शान्तिकरण ||
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II स्वस्तिवाचन II एक धार्मिक कर्म जिसमें कोई शुभ कार्य आरंभ करते समय मांगलिक मंत्रों का पाठ किया जाता है। स्वस्ति मन्त्र शुभ और शांति के लिए प्रयुक्त होता है। स्वस्ति = सु + अस्ति = कल्याण हो। ऐसा माना जाता है कि इससे हृदय और मन मिल जाते हैं। स्वस्ति मन्त्र का पाठ करने की क्रिया स्वस्तिवाचन कहलाती है। 
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हिन्दी भावार्थ:- महान कीर्ति वाले इन्द्र हमारा कल्याण करो, विश्व के ज्ञानस्वरूप पूषादेव हमारा कल्याण करो। जिसका हथियार अटूट है ऐसे गरुड़ भगवान हमारा मंगल करो। बृहस्पति हमारा मंगल करो।

स्वस्ति-वाचन सभी शुभ एवं मांगलिक धार्मिक कार्यों को प्रारम्भ करने से पूर्व वेद के कुछ मन्त्रों का पाठ होता है, जो स्वस्ति-पाठ या स्वस्ति-वाचन कहलाता है । इस स्वस्ति-पाठ में ‘स्वस्ति’ शब्द आता है, इसलिये इस सूक्त का पाठ कल्याण करनेवाला है । ऋग्वेद प्रथम मण्डल का यह ८९वाँ सूक्त शुक्लयजुर्वेद वाजसनेयी-संहिता (२५/१४-२३), काण्व-संहिता, मैत्रायणी-संहिता तथा ब्राह्मण तथा आरण्यक ग्रन्थों में भी प्रायः यथावत् रुप से प्राप्त होता है । इस सूक्त में १० ऋचाएँ है, इस सूक्त के द्रष्टा ऋषि गौतम हैं तथा देवता विश्वेदेव हैं । आचार्य यास्क ने ‘विश्वदेव से तात्पर्य इन्द्र, अग्नि, वरुण आदि सभी देवताओं से है । दसवीं ऋचा को अदिति-देवतापरक कहा गया है । मन्त्रद्रष्टा महर्षि गौतम विश्वदेवों का आवाहन करते हुए उनसे सब प्रकार की निर्विघ्नता तथा मंगल-प्राप्ति की प्रार्थना करते हैं । सूक्त के अन्त में शान्तिदायक दो मन्त्र पठित हैं, जो आधिदैविक, आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक – त्रिविध शान्तियों को प्रदान करने वाले हैं । 

II आ नो भद्राः सूक्तम् II
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आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः । 
देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे-दिवे ।।१ 
भावार्थ:- सब ओर से निर्विघ्न, स्वयं अज्ञात, अन्य यज्ञों को प्रकट करने वाले कल्याणकारी यज्ञ हमें प्राप्त हों । सब प्रकार से आलसय-रहित होकर प्रतिदिन रक्षा करने वाले देवता सदैव हमारी वृद्धि के निमित्त प्रयत्नशील हों ।।१ 

देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानां रातिरभि नो नि वर्तताम् । 
देवानां सख्यमुप सेदिमा वयं देवा न आयुः प्र तिरन्तु जीवसे ।।२ 
भावार्थ:- यजमान की इच्छा रखनेवाले देवताओं की कल्याणकारिणी श्रेष्ठ बुद्धि सदा हमारे सम्मुख रहे, देवताओं का दान हमें प्राप्त हो, हम देवताओं की मित्रता प्राप्त करें, देवता हमारी आयु को जीने के निमित्त बढ़ायें ।।२ 

तान् पूर्वया निविदा हूमहे वयं भगं मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम् । 
अर्यमणं वरुणं सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत् ।।३ 
भावार्थ:- हम वेदरुप सनातन वाणी के द्वारा अच्युतरुप भग, मित्र, अदिति, प्रजापति, अर्यमा, वरुण, चन्द्रमा और अश्विनीकुमारों का आह्वान करते हैं । ऐश्वर्यमयी सरस्वती महावाणी हमें सब प्रकार का सुख प्रदान करें ।।३

तन्नो वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत् पिता द्यौः । 
तद् ग्रावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना शृणुतं धिष्ण्या युवम् ।।४ 
भावार्थ:- वायुदेवता हमें सुखकारी औषधियाँ प्राप्त करायें । माता पृथ्वी और पिता स्वर्ग भी हमें सुखकारी औषधियाँ प्रदान करें । सोम का अभिषव करने वाले सुखदाता ग्रावा उस औषधरुप अदृष्ट को प्रकट करें । हे अश्विनी-कुमारो ! आप दोनों सबके आधार हैं, हमारी प्रार्थना सुनिये ।।४ 

तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियंजिन्वमवसे हूमहे वयम् । 
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये ।।५ 
भावार्थ:- हम स्थावर-जंगम के स्वामी, बुद्धि को सन्तोष देनेवाले रुद्रदेवता का रक्षा के निमित्त आह्वान करते हैं । वैदिक ज्ञान एवं धन की रक्षा करने वाले, पुत्र आदि के पालक, अविनाशी पुष्टि-कर्ता देवता हमारी वृद्धि और कल्याण के निमित्त हों ।।५

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पुषा विश्ववेदाः । 
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।।६ 
भावार्थ:- महती कीर्ति वाले ऐश्वर्यशाली इन्द्र हमारा कल्याण करें; सर्वज्ञ, सबके पोषणकर्ता सूर्य हमारा कल्याण करें । जिनकी चक्रधारा के समान गति को कोई रोक नहीं सकता, वे गरुड़देव हमारा कल्याण करें । वेदवाणी के स्वामी बृहस्पति हमारा कल्याण करें ।।६ 

पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभंयावानो विदथेषु जग्मयः । 
अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसा गमन्निह ।।७ 
भावार्थ:- चितकबरे वर्ण के घोड़ों वाले, अदिति माता से उत्पन्न, सबका कल्याण करने वाले, यज्ञआलाओं में जाने वाले, अग्निरुपी जिह्वा वाले, सर्वज्ञ, सूर्यरुप नेत्र वाले मरुद्-गण और विश्वेदेव देवता हविरुप अन्न को ग्रहण करने के लिये हमारे इस यज्ञ में आयें ।।७ 

भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ।।८ 
भावार्थ:- हे यजमान के रक्षक देवताओं ! हम दृढ़ अंगों वाले शरीर से पुत्र आदि के साथ मिलकर आपकी स्तुति करते हुए कानों से कल्याण की बातें सुनें, नेत्रों से कल्याणमयी वस्तुओं को देखें, देवताओं की उपासना-योग्य आयु को प्राप्त करें ।।८ 

शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम । 
पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः ।।९ 
भावार्थ:- हे देवताओं ! आप सौ वर्ष की आयु-पर्यन्त हमारे समीप रहें, जिस आयु में हमारे शरीर को जरावस्था प्राप्त हो, जिस आयु में हमारे पुत्र पिता अर्थात् पुत्रवान् बन जाएँ, हमारी उस गमनशील आयु को आपलोग बीच में खण्डित न होने दें ।।९

अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः । 
विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम ।।१० (ऋक॰१।८९।१-१०) 
भावार्थ:- अखण्डित पराशक्ति स्वर्ग है, वही अन्तरिक्ष-रुप है, वही पराशक्ति माता, पिता और पुत्र भी है । समस्त देवता पराशक्ति के ही स्वरुप हैं, अन्त्यज सहित चारों वर्णों के सभी मनुष्य पराशक्तिमय हैं, जो उत्पन्न हो चुका है और जो उत्पन्न होगा, सब पराशक्ति के ही स्वरुप हैं ।।१० 

द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः । 
वनस्पतयः शान्तिरेव देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः 
सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ।।११ 
भावार्थ:- द्युलोकरुप शान्ति, अन्तरिक्षरुप शान्ति, भूलोकरुप शान्ति, जलरुप शान्ति, औषधिरुप शान्ति, वनस्पतिरुप शान्ति, सर्वदेवरुप शान्ति, ब्रह्मरुप शान्ति, सर्व-जगत्-रुप शान्ति और संसार में स्वभावतः जो शान्ति रहती है, वह शान्ति मुझे परमात्मा की कृपा से प्राप्त हो ।।११

यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु । 
शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः ।।१२ (शु॰यजु॰) 
भावार्थ:- हे परमेश्वर ! आप जिस रुप से हमारे कल्याण की चेष्टा करते हैं, उसी रुप से हमें भयरहित कीजिये । हमारी सन्तानों का कल्याण कीजिये और हमारे पशुओं को भी भयमुक्त कीजिये ।।१२ 

II वैदिक II मङ्गलाचरणम् II 
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श्रीमन्महागणाधिपतये नमः । लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः । उमामहेश्वराभ्यां नमः । वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः । शचीपुरन्दराभ्यां नमः । मातृपितृचरणकमलेभ्यो नमः । इष्टदेवताभ्यो नमः । कुलदेवताभ्यो नमः । ग्रामदेवताभ्यो नमः । वास्तुदेवताभ्यो नमः । स्थानदेवताभ्यो नमः । सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः । सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः । 
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय श्रीमन्महागणाधिपतये नमः । 

स जयति सिन्धुरवदनो देवो यत्पादपङ्कजस्मरणम् ।
वासरमणिरिव तमसां राशिं नाशयति विऽघ्नानाम् ॥ 
सुमुखश्चैकदंतश्च कपिलो गजकर्णकः । 
लंबोदरश्च विकटो विघ्ननाशो गणाधिपः । 
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचंद्रो गजाननः । 
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि । 
विद्यारंभे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा ॥ 
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥
अभीप्सितार्थसिद्ध्यर्थं पूजितो यः सुरासुरैः । 
सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नमः ॥ 
सर्व मंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । 
शरण्ये त्र्यंबके गौरि नारायणि नमोस्तुऽते II
वक्रतुण्ड महाकाय कोटिसूर्यसमप्रभ । 
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ॥ 
गणेशाम्बिकाभ्यां नमः ॥

मंगलं भगवान् विष्णुः मंगलं गरुडध्वजः । 
मंगलं पुण्डरीकाक्षः मंगलायतनो हरिः ।I
सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति तेषाममंगलम् । 
येषां ह्रदिस्थो भगवान् मंगलायतनं हरिः । 
तदेवं लग्नं सुदिनं तदेव ताराबलं चंद्रबलं तदेव । 
विद्याबलं दैवबलं तदेव लक्ष्मीपते तेंऽघ्रियुगं स्मरामि । 
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः । 
येषामिंदीरवश्यामो ह्रदयस्थो जनार्दनः । 
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः । 
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥ 
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । 
तेषां नित्याभियुक्ताना योगक्षेमं वहाम्यहम् । 
स्मृतेः सकलकल्याणं भाजनं यत्र जायते । 
पुरुषं तमजं नित्यं व्रजामि शरणं हरिम् ॥ 
सर्वेष्वारब्धकार्येषु त्रयस्त्रिभुवनेश्वराः । 
देवा दिशंतु नः सिद्धिं ब्रह्मेशानजनार्दनाः । 
विश्वेशं माधवं ढुण्ढिं दण्डपाणिं च भैरवम् । 
वन्देकाशीं गुहां गङ्गां भवानीं मणिकर्णिकाम् ॥ 

विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे विष्णवे नमः ।
नमामि विष्णुं चित्तस्थमहङ्कारगतिं हरिम् ॥
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥ 
शुक्लांबरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम् । 
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशांतये । 
हरिर्दाता हरिर्भोक्ता हरिरन्नं प्रजापतिः ।
हरिः सर्वः शरीरस्थो भुङ्क्ते भोजयते हरिः ॥
आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् ।
सर्वदेवनमस्कारान् केशवं प्रतिगच्छति ॥
गतं पापं गतं दुःखं गतं दारिद्र्यमेव च ।
आगता सुखसम्पत्तिः पुण्याच्च तव दर्शनात् ॥
पापोऽहं पापकर्माहं पापात्मा पापसम्भवः ।
त्राहि मां कृपया देव शरणागतवत्सल ॥
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम ।
तस्मात्कारुण्यभावेन रक्ष रक्ष जनार्दन ॥

नमोस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे ।
सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते सहस्रकोटियुगधारिणे नमः ॥
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्ध्यात्मना वा प्रकृतेः स्वभावात् । 
करोमि यद्यद् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयामि ॥
स्वस्ति प्रजाभ्यः परिपालयन्तां न्याय्येन मार्गेण महीं महीशाः। 
गोब्राह्मणेभ्यः शुभमस्तु नित्यं लोकाः समस्ताः सुखिनो भवन्तु ।।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। 
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव। त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव । त्वमेव सर्वं मम देवदेव ॥
पश्येम शरदः शतम् । जीवें शरदः शतम् ।
बुध्येम शरदः शतम् । रोहेम शरदः शतम् ।
पुष्येंम शरदः शतम् । भवेम शरदः शतम् ।
भूषेम शरदं शतम् । भूयसीः शरदः शतात ॥
ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। 
मृत्योर्माऽमृतं गमय। ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्‌ पूर्णमुदच्यते। 
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
काले वर्षतु पर्जन्यः पृथिवी सस्यशालिनी | 
देशोऽयं क्षोभरहितः सज्जनाः सन्तु निर्भयाः ||

॥अथेश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासनामन्त्राः॥
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ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद् भद्रं तन्नऽआ सुव॥1॥ —यजुः अ॰ 30। मं॰ 3॥
भावार्थ:- हे (सवितः) सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, (देव) शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके (नः) हमारे (विश्वानि) सम्पूर्ण (दुरितानि) दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को (परा सुव) दूर कर दीजिये। (यत्) जो (भद्रम्) कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, (तत्) वह सब हम को (आ सुव) प्राप्त कीजिए॥1॥

हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥2॥
—यजुः अ॰ 13। मं॰ 4॥
भावार्थ:- जो (हिरण्यगर्भः) स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाश करनेहारे सूर्य-चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, जो (भूतस्य) उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का (जातः) प्रसिद्ध (पतिः) स्वामी (एकः) एक ही चेतनस्वरूप (आसीत्) था, जो (अग्रे) सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व (समवर्त्तत) वर्तमान था, (सः) सो (इमाम्) इस (पृथिवीम्) भूमि (उत) और (द्याम्) सूर्यादि को (दाधार) धारण कर रहा है। हम लोग उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) शुद्ध परमात्मा के लिए (हविषा) ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से (विधेम) विशेष भक्ति किया करें॥2॥

यऽ आत्मदा बलदा यस्य विश्वऽउपासते प्रशिषं यस्य देवाः।
यस्य च्छायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥3॥
—यजुः अ॰ 25। मं॰ 13॥
भावार्थ:- (यः) जो (आत्मदाः) आत्मज्ञान का दाता, (बलदाः) शरीर, आत्मा और समाज के बल का देनेहारा, (यस्य) जिस की (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (उपासते) उपासना करते हैं, और (यस्य) जिस का (प्रशिषम्) प्रत्यक्ष, सत्यस्वरूप शासन और न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं, (यस्य) जिस का (छाया) आश्रय ही (अमृतम्) मोक्षसुखदायक है, (यस्य) जिस का न मानना अर्थात् भक्ति न करना ही (मृत्युः) मृत्यु आदि दुःख का हेतु है, हम लोग उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) सकल ज्ञान के देनेहारे परमात्मा की प्राप्ति के लिये (हविषा) आत्मा और अन्तःकरण से (विधेम) भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें॥3॥

यः प्राणतो निमिषतो महित्वैकऽ इद्राजा जगतो बभूव।
यऽईशेऽ अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥4॥
—यजुः अ॰ 23। मं॰ 3
भावार्थ:- (यः) जो (प्राणतः) प्राणवाले और (निमिषतः) अप्राणिरूप (जगतः) जगत् का (महित्वा) अपने अनन्त महिमा से (एकः इत्) एक ही (राजा) विराजमान राजा (बभूव) है, (यः) जो (अस्य) इस (द्विपदः) मनुष्यादि और (चतुष्पदः) गौ आदि प्राणियों के शरीर की (ईशे) रचना करता है, हम लोग उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) सकलैश्वर्य के देनेहारे परमात्मा के लिये (हविषा) अपनी सकल उत्तम सामग्री से (विधेम) विशेष भक्ति करें॥4॥

येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।
योऽअन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥5॥
—यजुः अ॰ 32। मं॰ 6॥
भावार्थ:- (येन) जिस परमात्मा ने (उग्रा) तीक्ष्ण स्वभाव वाले (द्यौः) सूर्य आदि (च) और (पृथिवी) भूमि को (दृढा) धारण, (येन) जिस जगदीश्वर ने (स्वः) सुख को (स्तभितम्) धारण, और (येन) जिस ईश्वर ने (नाकः) दुःखरहित मोक्ष को धारण किया है, (यः) जो (अन्तरिक्षे) आकाश में (रजसः) सब लोकलोकान्तरों को (विमानः) विशेष मानयुक्त अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं, वैसे सब लोकों का निर्माण करता और भ्रमण कराता है, हम लोग उस (कस्मै) सुखदायक (देवाय) कामना करने के योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिये (हविषा) सब सामर्थ्य से (विधेम) विशेष भक्ति करें॥5॥

प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नोऽअस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6॥
—ऋ॰ म॰ 10। सू॰ 121। म॰ 10॥
भावार्थ:- हे (प्रजापते) सब प्रजा के स्वामी परमात्मा ! (त्वत्) आप से (अन्यः) भिन्न दूसरा कोई (ता) उन (एतानि) इन (विश्वा) सब (जातानि) उत्पन्न हुए जड़ चेतनादिकों को (न) नहीं (परि बभूव) तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरि हैं। (यत्कामाः) जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले हम लोग (ते) आपका (जुहुमः) आश्रय लेवें और वाञ्छा करें, (तत्) उस-उस की कामना (नः) हमारी सिद्ध (अस्तु) होवे। जिस से (वयम्) हम लोग (रयीणाम्) धनैश्वर्यों के (पतयः) स्वामी (स्याम) होवें॥6॥

स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवाऽ अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त ॥7॥
—यजु॰ अ॰ 32। मं॰ 10॥
भावार्थ:- हे मनुष्यो! (सः) वह परमात्मा (नः) अपने लोगों का (बन्धुः) भ्राता के समान सुखदायक, (जनिता) सकल जगत् का उत्पादक, (सः) वह (विधाता) सब कामों का पूर्ण करनेहारा, (विश्वा) सम्पूर्ण (भुवनानि) लोकमात्र और (धामानि) नाम, स्थान, जन्मों को (वेद) जानता है। और (यत्र) जिस (तृतीये) सांसारिक सुखदुःख से रहित, नित्यानन्दयुक्त (धामन्) मोक्षस्वरूप, धारण करनेहारे परमात्मा में (अमृतम्) मोक्ष को (आनशानाः) प्राप्त होके (देवाः) विद्वान् लोग (अध्यैरयन्त) स्वेच्छापूर्वक विचरते हैं, वही परमात्मा अपना गुरु आचार्य राजा और न्यायाधीश है। अपने लोग मिलके सदा उस की भक्ति किया करें॥7॥

अग्ने नय सुपथा रायेऽ अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नमऽउक्तिंविधेम ॥8॥
—यजुः अ॰ 40। मं॰ 16
भावार्थ:- हे (अग्ने) स्वप्रकाश, ज्ञानस्वरूप, सब जगत् के प्रकाश करनेहारे, (देव) सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिस से (विद्वान्)सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके (अस्मान्) हम लोगों को (राये) विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये (सुपथा) अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से (विश्वानि) सम्पूर्ण (वयुनानि) प्रज्ञान और उत्तम कर्म (नय) प्राप्त कराइये। और (अस्मत्) हम से (जुहुराणम्) कुटिलतायुक्त (एनः) पापरूप कर्म को (युयोधि) दूर कीजिये। इस कारण हम लोग (ते) आपकी (भूयिष्ठाम्) बहुत प्रकार की स्तुतिरूप (नमः उक्तिम्) नम्रतापूर्वक प्रशंसा (विधेम) सदा किया करें, और सर्वदा आनन्द में रहें॥8॥
॥ इतीश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासनाप्रकरणम्॥
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II अथ स्वस्तिवाचनम् II
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अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्।
होतारं रत्नधातमम्॥1॥

स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव।
सचस्वा नः स्वस्तये॥2॥ - ऋ॰म॰ 1। सू॰1। मं॰ 1,9।

स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वणः।
स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना॥3॥

स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः।
बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये स्वस्तय आदित्यासो भवन्तु नः॥4॥

विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये।
देवा अवन्त्वृभवः स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्वंहसः॥5॥

स्वस्ति मित्रावरुणा स्वस्ति पथ्ये रेवति।
स्वस्ति न इन्द्रश्चाग्निश्च स्वस्ति नो अदिते कृधि॥6॥

स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव।
पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि॥7॥
—ऋ॰ मं॰ 5। सू॰ 51।11-15॥

ये देवानां यज्ञिया यज्ञियानां मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञाः।
ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः॥8॥
—ऋ॰ मं॰ 7। सू॰ 35।65॥

येभ्यो माता मधुमत् पिन्वते पयः पीयूषं द्यौरदितिरद्रिबर्हाः।
उक्थशुष्मान् वृषभरान्त्स्वप्नसस्ताँ आदित्याँ अनु मदा स्वस्तये॥9॥

नृचक्षसो अनिमिषन्तो अर्हणा बृहद् देवासो अमृतत्वमानशुः।
ज्योतीरथा अहिमाया अनागसो दिवो वर्ष्माणं वसते स्वस्तये॥10॥

सम्राजो ये सुवृधो यज्ञमाययुरपरिह्वृता दधिरे दिवि क्षयम्।
ताँ आ विवास नमसा सुवृक्तिभिर्महो
आदित्याँ अदितिं स्वस्तये॥11॥

को वः स्तोमं राधति यं जुजोषथ विश्वे देवासो मनुषो यति ष्ठन।
को वोऽध्वरं तुविजाता अरं करद्यो नः पर्षदत्यंहः स्वस्तये॥12॥

येभ्यो होत्रां प्रथमामायेजे मनुः समिद्धाग्निर्मनसा सप्त होतृभिः।
त आदित्या अभयं शर्म यच्छत सुगा नः कर्त सुपथा स्वस्तये॥13॥

य ईशिरे भुवनस्य प्रचेतसो विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च मन्तवः।
ते नः कृतादकृतादेनसस्पर्यद्या देवासः पिपृता स्वस्तये॥14॥

भरेष्विन्द्रं सुहवं हवामहेंऽहोमुचं सुकृतं दैव्यं जनम्।
अग्निं मित्रं वरुणं सातये भगं द्यावापृथिवी मरुतः स्वस्तये॥15॥

सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसं सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्।
दैवी नावं स्वरित्रामनागसमस्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये॥16॥

विश्वे यजत्रा अधि वोचतोतये त्रायध्वं नो दुरेवाया अभिह्रुतः।
सत्यया वो देवहूत्या हुवेम शृण्वतो देवा अवसे स्वस्तये॥17॥

अपामीवामप विश्वामनाहुतिमपारातिं दुर्विदत्रामघायतः।
आरे देवा द्वेषो अस्मद् युयोतनोरु णः शर्म यच्छता स्वस्तये॥18॥

अरिष्टः स मर्त्तो विश्व एधते प्र प्रजाभिर्जायते धर्मणस्परि।
यमादित्यासो नयथा सुनीतिभिरति विश्वानि दुरिता स्वस्तये॥19॥

यं देवासोऽवथ वाजसातौ यं शूरसाता मरुतो हिते धने।
प्रातर्यावाण रथमिन्द्र सानसिमरिष्यन्तमा रुहेमा स्वस्तये॥20॥

स्वस्ति नः पथ्यासु धन्वसु स्वस्त्य१प्सु वृजने स्वर्वति।
स्वस्ति नः पुत्रकृथेषु योनिषु स्वस्ति राये मरुतो दधातन॥21॥

स्वस्तिरिद्धि प्रपथे श्रेष्ठा रेक्णस्वस्त्यभि या वाममेति।
सा नो अमा सो अरणे नि पातु स्वावेशा भवतु देवगोपा॥22॥
—ऋ॰ मं॰ 10। सू॰ 63॥ [मं॰ 3-16]

इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्याऽ इन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्ष्मा मा व स्तेनऽ ईशत माघशंसो ध्रुवाऽ अस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि॥23॥
—यजु॰ अ॰ 1। मं॰ 1

आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासोऽअपरीतासऽउद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद्वृधेऽ असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे॥24॥

देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानां रातिरभि नो निवर्तताम्।
देवानां सख्यमुपसेदिमा वयं देवा नऽआयुः प्रतिरन्तु जीवसे॥25॥

तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद्वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये॥26॥

स्वस्ति नऽ इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽ अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥27॥

भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥28॥
—यजु॰ अ॰ 25। मं॰ 14, 15, 18, 19, 21॥

अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये।
नि होता सत्सि बर्हिषि॥29॥

त्वमग्ने यज्ञानां होता विश्वेषां हितः।
देवेभिर्मानुषे जने॥30॥ - साम॰ पूर्वा॰ प्रपा॰1। मं॰ 1,2॥

ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः।
वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे॥31॥
—अथर्व॰ कां॰ 1। सू॰ 1। मं॰ 1॥
॥ इति स्वस्तिवाचनम्॥
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II अथ शान्तिकरणम् II
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[ शान्ति मन्त्र वेदों के वे मंत्र हैं जो शान्ति की प्रार्थना करते हैं। प्राय: हिन्दुओं के धार्मिक कृत्यों के आरम्भ और अन्त में इनका पाठ किया जाता है। ]

शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या।
शमिन्द्रासोमा सुविताय शं योः शं न इन्द्रापूषणा वाजसातौ॥1॥

शं नो भगः शमु नः शंसो अस्तु शं नः पुरन्धिः शमु सन्तु रायः।
शं नः सत्यस्य सुयमस्य शंसः शं नो अर्यमा पुरुजातो अस्तु॥2॥

शं नो धाता शमु धर्त्ता नो अस्तु शं न उरूची भवतु स्वधाभिः।
शं रोदसी बृहती शं नो अद्रिः शं नो देवानां सुहवानि सन्तु॥3॥

शं नो अग्निर्ज्योतिरनीको अस्तु शं नो मित्रावरुणावश्विना शम्।
शं नः सुकृतां सुकृतानि सन्तु शं न इषिरो अभि वातु वातः॥4॥

शं नो द्यावापृथिवी पूर्वहूतौ शमन्तरिक्षं दृशये नो अस्तु।
शं न ओषधीर्वनिनो भवन्तु शं नो रजसस्पतिरस्तु जिष्णुः॥5॥

शं न इन्द्रो वसुभिर्देवो अस्तु शमादित्येभिर्वरुणः सुशंसः।
शं नो रुद्रो रुद्रेभिर्जलाषः शं नस्त्वष्टा ग्नाभिरिह शृणोतु॥6॥

शं नः सोमो भवतु ब्रह्म शं नः शं नो ग्रावाणः शमु सन्तु यज्ञाः।
शं नः स्वरूणां मितयो भवन्तु शं नः प्रस्वः१ शम्वस्तु वेदिः॥7॥

शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नश्चतस्रः प्रदिशो भवन्तु।
शं नः पर्वता ध्रुवयो भवन्तु शं नः सिन्धवः शमु सन्त्वापः॥8॥

शं नो अदितिर्भवतु व्रतेभिः शं नो भवन्तु मरुतः स्वर्काः।
शं नो विष्णुः शमु पूषा नो अस्तु शं नो भवित्रं शम्वस्तु वायुः॥9॥

शं नो देवः सविता त्रायमाणः शं नो भवन्तूषसो विभातीः।
शं नः पर्जन्यो भवतु प्रजाभ्यः शं नः क्षेत्रस्य पतिरस्तु शम्भुः॥10॥

शं नो देवा विश्वदेवा भवन्तु शं सरस्वती सह धीभिरस्तु।
शमभिषाचः शमु रातिषाचः शं नो दिव्याः पार्थिवाः शं नो अप्याः॥11॥

शं नः सत्यस्य पतयो भवन्तु शं नो अर्वन्तः शमु सन्तु गावः।
शं न ऋभवः सुकृतः सुहस्ताः शं नो भवन्तु पितरो हवेषु॥12॥

शं नो अज एकपाद् देवो अस्तु शं नोऽहिर्बुध्न्यः१ शं समुद्रः।
शं नो अपां नपात् पेरुरस्तु शं नः पृश्निर्भवतु देवगोपा॥13॥
—ऋ॰मं॰ 7। सू॰ 35। मं॰ 1-13

इन्द्रो विश्वस्य राजति। शन्नोऽअस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे॥14॥

शन्नो वातः पवतां शन्नस्तपतु सूर्य्यः।
शन्नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्योऽअभि वर्षतु॥15॥

अहानि शम्भवन्तु नः शं रात्रीः प्रति धीयताम्।
शन्न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शन्नऽइन्द्रावरुणा रातहव्या।
शन्न इन्द्रापूषणा वाजसातौ शमिन्द्रासोमा सुविताय शं योः॥16॥

शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये। शंयोरभिस्रवन्तु नः॥17॥

द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। 
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः 
सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥18॥

तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। 
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतं 
प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्॥19॥
—यजुः॰ अ॰ 36। मं॰ 8, 10-12, 17, 24॥

यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥20॥

येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे वृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥21॥

यत् प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥22॥

येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥23॥

यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन्प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।
यस्मिँचित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥24

सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥25॥
—यजुः॰ अ॰ 34। मं॰ 1-6॥

स नः पवस्व शं गवे शं जनाय शमर्वते।
शं राजन्नोषधीभ्यः॥26॥ —साम॰ उत्तरा॰ प्रपा॰ 1। मं॰ 3॥

अभयं नः करत्यन्तरिक्षमभयं द्यावापृथिवी उभे इमे।
अभयं पश्चादभयं पुरस्तादुत्तरादधरादभयं नो अस्तु॥27॥

अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात्।
अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु॥28॥
—अथर्व॰ कां॰ 19।15।5, 6

॥ इति शान्तिकरणम्॥
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[ इस स्वस्तिवाचन और शान्तिकरण की सर्वत्र जहाँ-जहाँ प्रतीक धरें, वहाँ-वहाँ करना होगा।]

II विभिन्न शान्ति मन्त्र II
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बृहदारण्यक उपनिषद् तथा ईशावास्य उपनिषद् :-
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

तैत्तिरीय उपनिषद् :-
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ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः। शं नो भवत्वर्यमा। शं नः इन्द्रो वृहस्पतिः। शं नो विष्णुरुरुक्रमः। नमो ब्रह्मणे। नमस्ते वायो। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वमेव प्रत्यक्षम् ब्रह्म वदिष्यामि। ॠतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि। तन्मामवतु। तद्वक्तारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारम्। ''ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

तैत्तिरीय उपनिषद्, कठोपनिषद्, 
मांडूक्योपनिषद् तथा श्वेताश्ववतरोपनिषद् :-
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ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

केन उपनिषद् तथा छांदोग्य उपनिषद् :-
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ॐ आप्यायन्तु ममांगानि वाक्प्राणश्चक्षुः 
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि। 
सर्वम् ब्रह्मौपनिषदम् माऽहं ब्रह्म निराकुर्यां मा 
मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणम् मेऽस्तु।
तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

ऐतरेय उपनिषद् :-
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ॐ वां मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठित-मावीरावीर्म एधि।
वेदस्य म आणिस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान्
संदधाम्यृतम् वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु
तद्वक्तारमवत्ववतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम्।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

मुण्डक उपनिषद्, माण्डूक्य उपनिषद् तथा प्रश्नोपनिषद् :-
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ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम् देवाः। भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवागं सस्तनूभिः। व्यशेम देवहितम् यदायुः।
स्वस्ति नः इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्माऽमृतं गमय। ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥
- बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28। इसका अर्थ है, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो। मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो॥

यह मन्त्र मूलतः सोम यज्ञ की स्तुति में यजमान द्वारा गाया जाता था। आज यह सर्वाधिक लोकप्रिय मंत्रों में है, जिसे प्रार्थना की तरह दुहराया जाता है।
#आनंदम्

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