નક્ષત્ર ૨૭ પરિભ્રમણ.
अभिजित को छोड़ कर #२७_नक्षत्र और उनके #१०८_चरणों पर विचार किया गया। १०८ मनकों की माला में अभिजित् का एक मनका सुमेरु है। इसका उल्लंघन नहीं किया जाता। यह चरणहीन है। २८ नक्षत्र हैं। चन्द्रमा २७ का भोग करता है, अभिजित का नहीं। इस विषय में शास्त्र प्रमाण है। अतः अभिजित् को नक्षत्र मण्डली से बहिष्कृत कर रहा हूँ। २८ की संख्या अशुभ है। भागवत में २८ नरकों का वर्णन आया है। इसके अतिरिक्त २८ की संख्या में २ का अंक शुक्र का तथा ८ का अंक मंगल का है। २८ में शुक्र को मंगल दूषित कर रहा है। वृष और वृश्चिक का साथ अशुभ परिणामी है। दूसरे प्रकार से, २८ + ९ = ३ आवृत्ति, १ शेष १ मंगल का अंक होने से अशुभ परिणामी है। जब कि २७ की संख्या में २ और ७ के दोनों अंक शुक्र के हैं। वृष और तुला का मेल शुक्र के स्वामित्व के कारण पूर्ण शुभ है। दूसरे प्रकार से, २७÷ ९= ३ आवृत्ति ० शेष शून्य असत् वा ब्रह्म है। अतः वरणीय है। नक्षत्रों की संख्या २७ मानने में यह एक रहस्य है।
सभी नक्षत्रों का कोई न कोई गोत्र होता है। अभिजित गोत्र होन है चन्द्रमा से अयुक्त, पादहीन, गोत्रहीन नक्षत्र का वर्णन करना मेरे लिये अभीष्ट नहीं है। फिर अभिजित् का किया क्या जाय ? इसे मूहूर्त की संज्ञा देना अधिक उपयुक्त है। इसे जाति परिवर्तन वा धर्मान्तरण माना जाय। यह नक्षत्र मूहूर्त का आवरण डाल कर अहोरात्र में एक बार आता है। दिन के मध्यभाग मे इसकी उपस्थिति होती है। यह मुहूर्त रूप से मध्याह में १ घटी पर्यन्त रहता है। इस अभिजित मुहूर्त में पुरुषोत्तम राम का जन्म हुआ है। अभिजित् मुहूर्त जातक का फल ऐसा कहा गया है ...
'अतिसुललित कान्तिः सम्मतः सज्जनानां
ननु भवति विनीतश्चारुकीर्तिः सुरूपः ।
द्विजवरसुरभक्तिर्व्यक्तवाद मानवः स्याद् अभिजिति यदि सूतिर्भूपतिः स स्ववंशे ॥'
(दुण्डिराज )
जिसका जन्म अभिजित मुहूर्त में होता है, वह अत्यन्त शोभायमान कान्ति से युक्त तथा सत्पुरुषों द्वारा सम्मानित होता है। वह जातक निश्चय ही विनयी, सुन्दर कीर्तिमान, तथा सुरुपवान् होता है। वह द्विजश्रेष्ठ (ब्राह्मण) एवं देवता में भक्ति रखता है, प्रशस्त वक्ता होता है। वह अपने वंश में प्रमुख होता है।
दिन के मध्य में सूर्य दिग्बली होता है। सूर्य के बलवान् होने से जातक राजा वा राजतुल्य शासक/प्रशासक होता है। मेरा जन्म ज्येष्ठकृष्ण दशमी के दिन ठीक मध्याह्न काल (अभिजित मुहूर्त) में हुआ है। सूर्य के उच्चच्युत (वृष में प्रवेश) होने से इस मुहूर्त के सम्पूर्ण फल में हास स्पष्ट है। मध्याह्न जातक जातकों को मैंने शासन प्रशासन में प्रविष्ट होते हुए देखा है।
२७ नक्षत्रों की सरणी में सब लोग वह रहे हैं। मैं इस में स्नान कर रहा हूँ। इसमें १०८ घाट हैं। हर घाट अनोखा है। इन घाटों की सुषमा किश्चित कथ्य है। श्री १०८ को मेरा प्रणाम ।
१. #अश्विनीनक्षत्र
इसमें ३ तारे हैं। घोड़ा के मुख सदृश इस का आकार है। आश्विन मास की पूर्णिमा के आस पास चन्द्रमा इस नक्षत्र पर रहता है। यह लघु वा क्षित्र संज्ञक नक्षत्र है। अश्विनीकुमार इसके देवता हैं। मेष राशि के १३° अंश २०' कला तक इसका क्षेत्र है। शीर्ष एवं प्रमस्तिष्कीय गोलार्ध पर इसका नियन्त्रण है। चिन्तन प्रक्रिया पर इसका विशेष प्रभाव होता है। आवेश में आना ऊहापोह, कल्पनाशीलता, तन्द्रा, तनाव, आत्मविस्मृति, अपस्मार, उपता, अनिद्रा, आसक्ति, अन्यमनस्कता, ऐंठन, अंगघात, लकवा, सिरपीड़ा का विचार इस नक्षत्र से किया जाता है।
इस नक्षत्र का स्वामी केतु है तथा यह नक्षत्र जिस राशि में पड़ता है, उसका स्वामी मंगल है। अतः अश्विनी नक्षत्र जात व्यक्ति के स्वभाव में केतु एवं मंगल की भूमिका का वर्चस्व होता है। इस नक्षत्र में सूर्य उच्च का तथा शनि नीच का होता है। सूर्य इस नक्षत्र पर प्रतिवर्ष वैशाख के प्रारंभ में लगभग १३.१/४ दिन के लिये आता है, जब कि चन्द्रमा प्रति सत्ताइसवें दिन इस नक्षत्र का भोग करता है। इस नक्षत्र में पैदा होने वाले अधिकांश जातक विचारशील, अध्ययन शील, झगड़ालू, ज्योतिष वैद्यक में रुचि रखने वाले, भ्रमणप्रिय, चंचलस्वभाव, अर्शरोगी, बुद्धिमान, तथा महाकांक्षी होते हैं।
२. #भरणी_नक्षत्र
इसमें छोटे-छोटे तारों से छोटा सा रिकोग बनता है। यह अश्विनी के आगे पूर्व की ओर है। ३ इसे योन्याकार बताया गया है। यह मेष राशि में १३° २०' से लेकर २६° ४०' तक फैला हुआ है। इस का स्वामी शुक्र है। प्रमस्तिष्कीय मध्य भाग तथा सिर इसका प्रभाव क्षेत्र है। भरणीजात व्यक्ति का मस्तिष्क शुक्र और मंगल के प्रभाव से युक्त होता है। मंगल तम्बाकू का कारक है तथा शुक्र मदिरा एवं रसीले पदार्थों का कारक है। अतः ऐसा जातक धूम्रपान, मदपान करता है, रसीले पदार्थों में रुचि रखता है। सुखानुभूति की विशेष चाह, रसिक स्वभाव, मांसाहारी होने पर अत्यधिक क्रूरता एवं आक्रामकता, नीच संगता, साहस, उद्देश्य प्राप्ति मे सफल, चातुर्य, सच्चाई, प्रासाद एवं रोग मुक्तता ऐसे जातक में सामान्यतः देखी जाती है।
इस नक्षत्र के दूषित होने पर, सिर के अग्रभाग में चोट रति रोग से अस्वस्थता, हड़बड़ी, सिर का नजला, कफ, जुकाम चक्षुपीडा, धमनीविकार, व्यसन चटोरेपन की प्रवृत्ति जातक में पायी जाती है।
इस नक्षत्र में पैदा हुए अधिकांश जातक बलवान् विरोधियों को नीचा दिखाने वाले, धार्मिक कार्यों में रुचि रखने वाले, धोखा देने वाले, निम्न स्तर के कार्यों में लगे रहने वाले, कलात्मक अभिरुचियों वाले, यात्री एवं चर प्रकृति के होते हैं।
३. #कृत्तिका_नक्षत्र
यह तारागणों का गुच्छा सा दिखता है। कार्तिक के महीने में रात्र्यारंभ में यह पूर्व दिशा में दिखाई पड़ता है। इसमें ६ तारे माने गये हैं। इसकी आकृति क्षुर सदृश कही गई है। कार्तिक की पूर्णिमा के लगभग चन्द्रमा इस नक्षत्र पर होता है। इस नक्षत्र का स्वामी सूर्य है। इसका प्रथम चरण मेष राशि के २६° ४०' से लेकर ३०° तक है। अन्य तीन चरण वृष राशि के १०° तक फैले हैं। इसके दूसरे चरण में चन्द्रमा उच्च का होता है।
सिर का अगला भाग, मस्तिष्क दृष्टि भाग, ललाट पर इसके प्रथम चरण का तथा मुख, कण्ठ, निम्नहनु,कपोल पर इसके अन्य तीन चरणों का प्रभाव रहता है। यह नक्षत्र मेष एवं वृष राशियों का योजक है। पहले चरण पर सूर्य एवं मंगल का प्रभाव तथा शेष तीन चरणों पर सूर्य एवं शुक्र का प्रभाव रहता है। इस नक्षत्र पर दूषित प्रभाव होने से तीव्र ज्वर, मस्तिष्क ज्वर, चेचक, झाई, मुहासा, दृष्टिदोष, कण्ठावरोध, कण्ठ प्रदाह, विस्मृति, चेहरे पर धब्बा मस्सा होता है।
इस नक्षत्र में पैदा होने वाले अधिकांश जातक हृष्टपुष्ट, युयुत्सु, श्रेष्ठ, प्रधान, तार्किक, विषयाकांक्षी, आसक्त, तीव्र, प्रसिद्ध, मैत्रीपरायण, सहृदयपूर्ण व्यवहार करने वाले, शांति के इच्छुक, द्यूतप्रिय, धनीएवं सामाजिक क्रिया कलापों में भाग लेने वाले होते हैं।
४. #रोहिणी_नक्षत्र
इसमें ५ तारे माने जाते हैं। यह गाड़ी के सदृश होता है। कृत्तिका के कुछ दक्षिण में इस की स्थिति देखी जाती है। कहा जाता है जब शनि और मंगल रोहिणी के तारों के बीच से हो कर जाते हैं, (शकट भेदन) तो प्रलय होता है। केवल चन्द्रमा को इसका भेदन करते हुए देखा जाता है। इसी कारण चन्द्रमा को रोहिणी पति कहते हैं। यह नक्षत्र वृष राशि के १०° से लेकर २३° २०' रहता है। इसलिये रोहिणी जात जातक पर चन्द्र एवं शुक्र का स्पष्ट प्रभाव देखा जाता है। ऐसे जातक सौम्य प्रकृति, सुहासप्रिय, सौन्दर्य प्रेमी, संगीत में रुचि रखने वाले, ललित कला, सरस साहित्य, नाट्य शास्त्र, यात्रा एवं उत्सव प्रिय होते हैं। मातृस्नेह प्राप्त करने वाले, विपरीतयोनि के साथ सतत जीवन जीने वाले मृदु हृदय, मधुर भाषी, प्रियदर्शी, परोपकारी, शुद्धात्मा तथा स्थिर विचारों के होते हैं।
इस नक्षत्र के दूषित होने पर कण्ठ स्वर विकृत होता है, छाती में पीड़ा होती है, हृदय को ठेस पहुंचती है। तालु, ग्रीवा, जिह्वा, मुंह, शीर्ष प्रभाग, अनुमस्तिष्क पर इसका विशेष प्रभाव होता है।
इस नक्षत्र में पैदा हुए अधिकांश जातक स्वच्छताप्रिय, असत्यवादी, चापलूस, संगीतज्ञ, समाजसेवी, यात्री प्रसन्नचित, अन्धविश्वासी, सत्यनिष्ठ तथा आस्तिक होते हैं।
५. #मृगशिरा_नक्षत्र
इस नक्षत्र का आधा भाग वृष राशि में तथा शेष आधा भाग मिथुन में होता है। वृष के २३° २०' से लेकर ३०° तक पूर्वार्ध तथा मिथुन राशि के ६° ४०' तक उत्तरार्धभाग का विस्तार है। मृगशिरा के उत्तरार्ध भाग में पैदा होने वाले मंगल और बुध के संयुक्त प्रभाव में होते हैं। इसके पूर्वार्ध में जो जातक पैदा होते हैं, उन पर मंगल और शुक्र का सम्मिलित प्रभाव होता है। मृगशिरा का स्वामी मंगल है। इस नक्षत्र के प्रभाव में सम्पूर्ण वाक् तन्त्र होता है। इस नक्षत्र के दूषित होने पर पर स्त्रियों को अनियमित मासिक सूजन, मूत्रकृच्छ्र, रतिपीड़ा, नाक से रक्त स्राव, दन्त शूल, प्रीवास्थिका विच्छेद, कन्धे में/ के आस पास पीड़ा, बाहु पीड़ा होती है।
इस नक्षत्र के पूर्वार्ध में पैदा होने वाले अधिकांश जातक धनवान् अनैतिक कार्यों से धनार्जन करने वाले, अविश्वासी, उन्नतिगामी, कार्यनिपुण, झूठे, आडम्बरी, पाखण्डी, प्रतिभाशाली तथा धर्म में पाखण्डी होते हैं। इसके उत्तरार्ध में उत्पन्न जातक साहसी उत्साही, विनोदी, उर्वर मस्तिष्क, वाक् पद्, सततसावधान एवं चुम्बकीय व्यक्तित्व से सम्पन्न होते हैं। शीघ्र उत्तेजित होना, तुरन्त प्रत्युत्तर देना, वासनोन्मुख, स्वार्थपरता, उद्यमता, अस्थैर्य इनके स्वभाव का अंग होता है।
६. #आर्द्रा_नक्षत्र
यह राहु का नक्षत्र है। मिथुन राशि में ६° ४०' से लेकर २०° तक इसका विस्तार है। स्कन्ध, बाहु एवं हाथ पर इसका प्रभाव रहता है। श्वासनली, प्रसिका तथा कर्णेनली पर इसका नियन्त्रण हैं। यह नक्षत्र दूषित होने पर सूखी खाँसी, गले का सूखना, कान का जाम हो जाना, स्वर भंग, श्वसन क्रिया में पीड़ा करता है।
इस नक्षत्र में उत्पन्न हुआ जातक प्रखर प्रतिभावान् पूर्वानुमान में दक्ष, पूर्वाभासयुक्त, निष्पकट, किन्तु आलोचक, सच्चरित्र, शोधपरक मस्तिष्क से सम्पन्न होता है। इन्द्रजालिक एवं तात्रिक योग्यताओं का धनी होता है। निन्दित कार्य करने वाला कृतघ्न, विश्वासघाती, अभिचारकर्मक तथा मध्यवय में अत्यन्त कष्ट पाने वाला जातक इस नक्षत्र की देन है। यह नक्षत्र सन्तानोत्पादन मे निर्बल होता है। इस नक्षत्र में पैदा होने वाले अधिकांश जातक अल्पवीर्य एवं स्खलनरोगी होते हैं तथा गणित सांख्यिकी वाणिज्य में विशेषयोग्यता रखते हैं। बुध की राशि एवं राहु के इस नक्षत्र में पैदा होने वाले लोग अधिकतर मधुर वाक् तथा प्रेमपूर्ण व्यवहार करते हैं, वैद्य एवं मंत्रज्ञ होते हैं, मदसेवन करते हैं, घमण्डी, दम्भी एवं यायावर होते हैं, आडम्बर पूर्ण 'जीवन व्यतीत करते हैं।
७. #पुनर्व_नक्षत्र
यह गुरु का नक्षत्र है। इसके तीन पाद मिथुन राशि में अंतिम चौथा पाद कर्क राशि में होता है। यह मिथुन में २०° से लेकर ३०° तथा कर्क में ३° २०' तक फैला हुआ है। कन्धे और गले से लेकर फेफड़े, अन्तः श्वासनली, प्रास-नली, छाती का ऊपरी भाग, स्तनाम पर्यन्त इसका प्रभाव रहता है। इस नक्षत्र के दूषित होने पर गलगण्ड, श्वासनलीशोथ, कान की सूजन, रक्तविकार यक्ष्मा, शीतज्वर न्यूमोनिया छाती में जलन तथा हृदय प्रदाह होता है।
नक्षत्र स्वामी गुरु तथा राशि स्वामी बुध के प्रभाव से अधिकांश जातक विचार पूर्वक कार्य करने वाले मेधावी प्रज्ञावान् होते हैं। विस्तृत दृष्टिकोण तीव्रबुद्धि, अच्छी स्मरणशक्ति, पूर्वानुमान में कुशल, व्यावहारिक कार्य क्षमता से युक्त शुद्ध सत्यवादी उच्चविचारों वाले धार्मिक कार्यकता, दिव्यज्ञान सम्पन्न, धनी, आत्मकेन्द्रित होना इसके लिये सहज है।
चन्द्रमा की राशि तथा गुरु के नक्षत्र पुनर्वसु में पैदा होने वाले जातक महत्वपूर्व जीवन जीने वाले, आचारविचार का ध्यान रखने वाले, सुन्दर कल्पनाशक्ति से युक्त, विश्वसनीय, क्षमाशील, सौन्दर्योपासक, प्रभावशाली तर्क प्रस्तुत करने वाले, दानी, न्यायप्रिय, दयालु, धनाढ्य, शिक्षक, राजनेता, कवि एवं तीर्थयात्री होते हैं।
८. #पुष्य_नक्षत्र
इस नक्षत्र का स्वामी शनि है। यह कर्क राशि में ३° २०' से लेकर १६° ४०' तक विस्तृत है। पौषमास में पूर्णिमा के लगभग चन्द्रमा इस नक्षत्र पर आता है। पूरा वक्षस्थल, हृदय, फुफ्फुस, यकृत, अग्न्याशय इस के प्रभाव में रहता है। इसके दूषित होने पर राजयक्ष्मा, अन्तः श्वसनीयप्रणाली में व्रण, पित्त अश्मरी, घृणा, जुगुप्सा, हिचकी, पौलिया, श्वास कास, तपेदिक ज्वर का उदय होता है। इसनक्षत्र में पैदा होने वाले जातक मितव्ययी, बुद्धिमान, अल्पव्ययी (कंजूस भी), विवादी चिन्तनशील, सावधान, तत्पर, आत्मकेन्द्रित क्रमबद्ध, नियमबद्ध, सहनशील, उद्योगशील, स्पष्टभाषी एवं कार्य निपुण होते हैं। अधिकांश जातक बड़े परिवार वाले तथा बृहत् स्रोतों से युक्त होते हैं। इनका मन अस्थिर रहता है। ये भ्रमणशील प्रकृति के होते हैं। कठिन कार्यों को भी दक्षतापूर्वक निपटाने में सफल होते हैं। साधारण सी बात पर चिन्ता करते हैं। कठिन परिस्थितियों में भी ये साहस नहीं छोड़ते। इनकी आर्थिक स्थिति साधारण ही होती है। ये ईश्वर भक्त एवं दार्शनिक स्वभाव के होते हैं। पुष्य नक्षत्र में पैदा होने वाले जातक दीर्घायु होते हैं तथा सांसारिक दृष्टि से सफल माने जाते हैं। जब भी शनि इस नक्षत्र पर आता है तो जातक आजीविका एवं सम्पत्ति द्वारा विशेष लाभ पाता है।
९. #आश्लेषा_नक्षत्र
यह बुध का नक्षत्र है। कर्क राशि में १६° ४०' से लेकर ३०० तक इसका वर्चस्व है। फुफ्फुस, हृदय, यकृत, प्लीहा, अग्न्याशय, अधोमासनली, हृदय महाशिरा पर इसका प्रभाव जाना जाता है। इस नक्षत्र के दूषित होने पर, श्वास कास वायुगोला आमवात गठिया मन्दाग्नि अपच का रोग होता है।
इस नक्षत्र में पैदा होने वाले जातक बुध और चन्द्रमा के सम्मिलित प्रभाव से युक्त होते हैं। धैर्यहीनता, परिवर्तनशीलता, कल्पनाशीलता, वारियता इनका विशेष गुण होता है ये कार्यकुशल, अनर्गलवक्ता, बहुभाषी, विदूषक, विद्वान, विद्याव्यसनी, संगीत साहित्य कलाविद, स्वार्थी, प्रपञ्ची, मायावी एवं अविश्वसनीय होते हैं। स्वांगरचने, अभिनय करने में ये दक्ष होते हैं। दूसरों की भाषा आसानी से समझ लेते हैं। दूसरों की अनुकृति करने में पटु होते हैं। ये धनवान् यथार्थवादी, स्त्री में लीन, मृदुभोजी, सरस व्यञ्जन प्रिय, हँसमुख, सरल और धूर्त होते हैं।
१०. #मघा_नक्षत्र
यह केतु का नक्षत्र है। सिंह राशि का प्रारंभ इसी से होता है। यह सिंह राशि के १३° २०' पर्यन्त फैला हुआ है। इस नक्षत्र का प्रभाव क्षेत्र पीठ, रीढ़ की हड्डी, हृदयस्पन्दन सुषुम्णा नाड़ी, आमाशय, महाधमनी एवं नाभि है। इस नक्षत्र के दूषित होने पर हृदरोग, हृदय में अत्यधिक एवं अचानक स्पन्दन, ठेस, पीठ में दर्द, उद्रिरण, आमाशयिक व्रण, मूर्छा, पागलपन, भ्रान्ति, शंसय, जठराग्निघ्नता एवं उदरपीड़ा होती है।
इस नक्षत्र में पैदा होने वाले जातक स्पष्टवादी, युयुत्सु लड़ाकू, शक्तिशाली, निर्भीक, साहसी निर्लज्ज ढीठ, कामी, अनुरागी बैरागी, अभिमानी दानी, शीघ्रकोपी, शीघ्रतुष्टी, शीघ्रगामी, शीघ्रकर्मी, स्वार्यतत्पर, उच्चाभिलाषी, उष्णप्रकृति, औम, शीघ्रविश्वासी, धनी, कार्यपटु, उत्साही, अविलम्बी, अधिक श्रम न करने वाले, ईश्वरपरायण, न्याय प्रिय, गुप्त कार्यों के प्रति यत्नशील तथा संशयी होते हैं।
इस नक्षत्र में पैदा होने वाले जातकों पर सूर्य और केतु का सम्मिलित प्रभाव काम करता है। ऐसे जातक अपने से बड़ों के प्रति आदर भाव रखते हैं, एकाएक चोट खाते हैं, उन्नति के मार्ग में बार बार बाधाओं का सामना करते हैं, तेज बोलने वाले एवं चिन्ताग्रस्त मनः स्थिति के होते हैं।
११. #पूर्वाफाल्गुनी_नक्षत्र
शुक्र का यह नक्षत्र सूर्य की राशि सिंह में १३° २०' से २६° ४०' पर्यन्त व्याप्त है। हृदय रीढ रज्जु सुषुम्नानाडी तथा उदरभाग पर इसका विशेष प्रभाव रहता है। इस नक्षत्र के दषित होने पर सन्तान कष्ट, विपरीत योनिपीड़ा, स्त्रियों को गर्भाशय का रोग, बार बार गर्भ स्राव, मृतसन्तान, अनियमित अतुधर्म (मासिकस्राव), प्रेम वैफल्य, हदपीड़ा, उदर विकार, अरुचि, रक्ताल्पता, हृदय में सूजन व्रण तथा रक्तचापाधिक्य का रोग होता है।
इस नक्षत्र में पैदा होने वाले जातक उदात्त हृदय, प्रगल्भमन, प्रियदर्शी, हँसमुख, विलासी और आरामप्रिय, कवि, उदार, दीनचित्त, सावधान, सत्यनिष्ठ, शुद्ध, सरल, विनोदी, क्रीडावान्, उद्यमशील, आत्मसंस्थ, भूषाप्रिय, सेनानी सभ्य और सुहृद होते हैं। ये जातक कोमल हृदय, अपराध से डरने वाले, करुणरस बहाने वाले, सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करने वाले, सुभाषित शस्त्र एवं शास्त्र वेत्ता, पशुपालक, सम्मान प्रिय, स्वाभिमानी, शुद्धाचारी एवं विपरीतयोनि की प्रशंसा करने वाले होते हैं। ऐसे जातक प्रेमपथिक तथा पाप से दूर रहते हैं। साहित्य एवं स्वच्छ राजनीति का क्षेत्र इन के लिये सर्वाधिक उपयुक्त रहता है।
१२. #उत्तराफाल्गुनी_नक्षत्र
इस नक्षत्र का प्रथम चरण सिंह राशि में २६° ४०' से ले कर पूरा ३०° तक है। इसका शेषतीन चरण कन्या राशि में ०° से १०° तक व्याप्त है। इस नक्षत्र का अधिपति सूर्य है। इस का प्रभाव क्षेत्र रीढ रज्जु का अंतिम भाग, क्षुद्रान्त्र, बृहदान्त्र एवं कुक्षि है। इस नक्षत्र के दूषित होने पर उदरशूल, पीठदर्द, मस्तिष्कीय उद्घान्ति, मलावरोध, रक्तदूषण, त्वविकार, ज्वर, आत्रपुच्छशोथ का रोग होता है।
इस नक्षत्र के प्रथम चरण में पैदा होने वाले जातकों पर सूर्य का सम्पूर्ण प्रभाव होता है तथा इसके अन्य तीन चरणों में पैदाहोने वालों पर सूर्य तथा बुध का संयुक्त प्रभाव रहता है। प्रथमपाद जात व्यक्ति आत्मबलसम्पन्न, उदार चेता, संकीर्णविचारों से दूर रहने वाले तथा नैतिक मापदण्डों पर चलने वाले होते हैं। इनकी स्मरणशक्ति तीव्र होती है तथा ये अल्पभोजी एवं अल्प सन्तानवान् होते हैं। उच्चाभिलाषी, अधिकार प्राप्त, देश भक्त एवं हिंसात्मक प्रवृत्ति के होते हैं। अन्य तीन पादों में पैदा होने पर बुध के प्रभाव से इनमें विद्याध्ययन की प्रवृत्ति पैदा होती है। ये विषय विशेषज्ञ, ज्योतिषी, खगोलज्ञ, गणितज्ञ, वाग्मी, मुखर, अभियन्ता, कूटनीतिज्ञ, कुशाग्रबुद्धि, लेखक, व्यापार प्रवीण तथा निश्च्छल होते हैं। इस नक्षत्र में पैदा होने वालों का दाँत आगे निकला होता है।
१३. #हस्त_नक्षत्र
यह नक्षत्र कन्याराशि में १०° से लेकर २३° २०' तक विस्तार वाला है। इसका स्वामी चन्द्रमा है। छोटी आँत, वृक्क, मूत्राशय पर इसका वर्चस्व है। दूषित होने पर तत्संबंधी अंगों में विकार उत्पन्न होता है। उदर में वायु का भरना, आंतों का उतरना, आँतों में दर्द, आंतों में मल का रुकना, आँतों का शिथिल होना, आंतों में कीड़े पड़ना, अतिसार, आँव, मूत्ररोग, गुर्दे में पथरी होना, रोग इस नक्षत्र में पैदा होने वाले जातक में सामान्यतः होते है। बुध की राशि एवं चन्द्रमा के नक्षत्र में पैदा होने वाले जातक पर इन ग्रहों का संयुक्त प्रभाव पड़ता है। ऐसे जातक वेदज्ञ, सिद्धान्तशास्त्री, पौराणिक कथाकार, ज्योतिषी होते हैं। इनमें व्यापारिक बुद्धि होती है। ये उद्यमी, कार्यकुशल, चोर, शिल्पी, मद्यप, तरलपदार्थों के शौकीन होते हैं। ऐसे जातक अधिकांशतः कृतघ्नी, कपटी, असत्यवादी, अभिमानी, उत्तरदायित्व न निभाने वाले, गायन प्रेमी, लम्बे कद के होते हैं। ऐसे जातक अधिकतर साधारण जीवन जीने वाले होते हैं। इसमें पैदा हुआ जातक बुद्धिमान् होता है।
१४. #चित्रा_नक्षत्र
इस नक्षत्र का आधा भाग कन्या राशि में तथा शेष आधा भाग तुला राशि में पड़ता है। कन्या में २३° २०' से लेकर ३०° तक पूर्वार्ध तथा तुला में ०° से लेकर ६° ४०' तक उत्तरार्ध भाग फैला है। इस का नक्षत्र स्वामी मंगल है। इस नक्षत्र के पूर्वार्ध में पैदा होने वाले जातकों पर मंगल एवं बुध का मिश्र प्रभाव रहता है। इसके उत्तरार्ध भाग में जायमान लोगों पर शुक्र एवं मंगल का मिश्र प्रभाव होता है।
इस नक्षत्र का प्रभाव क्षेत्र कटि है। इस के दूषित होने पर कमर का दर्द तथा कटिस्थ अंगों में विकार उत्पन्न होता है। मूत्र नलिका में जलन, वृक्क शैथिल्य, उत्तेजना, मस्तिष्क ताप, शिरपीडा, बुक्क अश्मरी, मूत्रावरोध, वस्तिशूल का रोग ऐसे जातकों को प्रायः होता है।
इसमें पूर्वार्धजात लोग हास्यप्रिय प्रयोगवादी शक्तिवन्त, तीक्ष्ण तर्कशील, असहनशील, साहसी, व्यापारी, उद्यमी वाकुशल, भव्य आकृति एवं बहुकम होते हैं। ऐसे जातक अद्भुतकर्मा, आक्रामक बलिष्ठ, दीर्घकाय तथा सामान्य आर्थिक स्थिति के नायक होते हैं। उत्तरार्धजात लोग श्रृंगारप्रिय, प्रत्यक्षानुमान एवं परीक्षण करने वाले, उत्कृष्ट अभिरुचिवाले आदर्शवादी, उत्तमकर्मक, संगीत प्रेमी तथा मृदुकटु स्वभावाले होते हैं। ये अतिकामुक तथा यौन रोगी होते हैं।
१५. #स्वानी_नक्षत्र
राहु का यह नक्षत्र तुलाराशि में ६° ४०' से लेकर २०° तक विस्तार वाला है। वस्ति भाग पर इस का पूरा नियन्त्रण है। मूत्राशय, मलाशय, शुक्राशय, गर्भाशय पर इसका विशेष प्रभाव है। इस नक्षत्र के दूषित होने पर गर्भाशय में व्रण गर्भस्खलन, बन्ध्यापन का दोष स्त्रियों में होता है। जननेन्द्रिय में अति उत्तेजना वा शिथलन पुरुषों में होता है। मलाशय दोष से शरीर पर चकते पड़ते हैं तथा कुष्ठ होता है।
इस नक्षत्र में पैदा हुए जातक संवेदनशील, दयालु, मिलनसार, स्पष्ट भाषी, अन्तर्ज्यानी भविष्यवक्ता, समालोचक विनम्र, भावुक, मदिरादि सेवी, बातचीत के मर्म को समझने वाले तथ्य की गहराई में पहुँचने वाले, साधु, योगी, तपस्वी, यती, चरित्री होते हैं। इनकी अद्भुत स्मरणशक्ति होती है। ये आचारशील विवेकी शुद्धान्तःकरण के होते हैं। ये शीघ्ररुष्ट हो जाते हैं, घुमक्कड़ होते हैं। इन्हें विलम्ब से सफलता मिलती है।
१६. #विशाखा_नक्षत्र
इस नक्षत्र के प्रथम तीन चरण तुलाराशि में २०° से ३०° तक तथा अन्तिम चरण वृश्चिक राशि में ०° से ३° २०' तक फैले हुए हैं। इसका स्वामी गुरु है। जनन और उत्सर्जन अंग इसके अधिकार में हैं। इसके दूषित होने पर मधुमेह का रोग, जिससे चिड़चिड़ापन, चक्कर आना, सुस्ती, आलस्य आता है। गर्भाशय एवं जननेन्द्रिय के रोग, पौरुष ग्रन्थि का शिथिलन, जलोदर, रक्त स्राव, उलझन, घबराहट एवं मोटापा होता है।
शुक्र की राशि एवं गुरु के नक्षत्र भाग में पैदा होने वाले जातक प्रसन्नवदन, आकर्षक एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व, नम्र, आस्थावान्, परम्परावादी, सभ्य, ईश्वर भक्त, न्यायप्रिय, विद्वान् वाक् कुशल, चमकदार एवं स्वच्छ वेश भूषा, लालची, ईर्ष्यालु, अभिमानी एवं शिक्षक होते हैं। ऐसे जातक मनोरंजन प्रिय, रतिप्रिय, सुखी, जीवन के उत्तरार्ध में सफल तथा विश्वसनीय होते हैं।
मंगल की राशि वृश्चिक में विशाखा के चतुर्थचरण जात लोग उदार, दयालु अतिवादी स्पष्टवादी स्वच्छन्द उत्साही सादगीपसन्द, भद्र, गौरवान्वित अनियंत्रित इच्छाशक्तिवाले, शूर, कूटनीतिज्ञ होते हैं। व्यर्थदोषरोपण एवं छिद्रान्वेषण करते हैं। विचार एवं कार्य दोनों में प्रवीण होते हैं। गुरु के पीड़ित होने पर चोर तथा लड़ाकू होते हैं।
१७. #अनुराधा_नक्षत्र
वृश्चिक राशि में ३° २०' से लेकर १६° ४०' पर्यन्त इस का प्रस्तार है। इसका स्वामी शनि है। गुह्यांग पर इसका नियन्त्रण है। इसके दूषित होने पर स्त्रियों को मासिक कष्ट होते है। गुदा स्थान में मस्से उभरते हैं। कोष्ठबद्धता, काँच का निकलना, अर्श, वायु प्रकोप, सन्धिवात, सन्निपात तथा तीक्ष्ण दर्द होता है।
इस नक्षत्र में जयमान लोग दृढनिश्चयी, शुध्वमना, अभियकर, शक्तिवान् अधिकारपूर्ण वाणी से युक्त, स्वार्थी, हिंसात्मक प्रवृत्ति, क्रूर, बलशाली, नीच मनोवृत्ति, मलिन मन, प्रतिशोधी, आक्रामक, पराक्रमी, निर्भीक, शिवभक्त, धैर्यवान्, एकान्तप्रेमी रहस्यपूर्ण, शोधकर्ता, आविष्कारक प्रयोगवादी, गुप्तकार्यों मे लगे रहने वाले, चिन्तनशील, दुर्धर्ष, असामाजिक कृत्यों में लीन हरते हैं। ऐसे जातक स्वधर्म में स्थित तथा प्रशस्त विचार धारा के होते हैं। दर्शनशास्त्र, ज्ञान विज्ञान एवं तकनीकी कार्यों में रुचि रखते हैं। ये जातक अल्पसुखी, चतुराई से काम निकालने वाले तथा मनोश्लेषी होते हैं। आश्चर्यजनक कार्यों को करने वाले ऐसे जातक प्रायः सर्वभक्षी एवं दुःखी बचपन वाले होते हैं।
१८. #ज्येष्ठा_नक्षत्र
यह नक्षत्र वृश्चिक राशि में १६° २०' से ३०° पर्यन्त व्याप्त है। इसका स्वामी बुध है। मलद्वार वृषण, गुप्तांग डिम्बन्धि पर इसका वर्चस्व है। इसके दूषित होने पर गुदा विकृति, अर्शपीड़ा, स्त्रियों में अनियंत्रित मासिक रक्त स्राव, प्रदर कमर दर्द होता है। इस नक्षत्र में बृहस्पति के होने पर नितम्ब वा श्रोणि प्रदेश विस्तृत तथा भव्य होता है।
इसमें पैदा होने वाले जातक अध्ययन शील, अध्यवसायी, कार्यशील, क्रिया तत्पर, शोधकर्मी, निष्कपट, सरलचित, हास्यप्रधान, तीक्षणबुद्धि, कृच्छ्र स्वभाव, स्पष्टवादी, वाग्युद्धपटु, तर्कशास्त्री, विद्वान होते हैं। सतत काम में लगे रहने वाले प्रयोगवादी मस्तिष्क, वाक्चातुर्य युक्त, तीव्रता से कार्यों का निपटारा करते हैं। ऐसे जातक अतिशयता की सीमा छूने वाले, विकट क्रोधी, प्रख्यात, विजयी, उठाईगीर, ठग, चोर, लुच्चा, धूर्त होते. हैं। वैज्ञानिक रुचि एवं अस्थिर मान्यताओं से युक्त ये दूत का काम करने वाले वा सेनानी होते हैं। ये उच्चस्वर वाले अभिमानी तथा मित्रों के प्रति नम्र रहते हैं। ये कुलविरोधी एवं विघ्नों से सदा घिरे रहते हैं।
१९. #मूल_नक्षत्र
इस नक्षत्र से धनुराशि का प्रारंभ होता है। यह ०° से १३° २०' धनु में फैला है। इसका स्वामी केतु है। दोनों जघन उर्वस्थि, श्रोणि मेखला, नितम्ब का अग्रभाग इसका प्रभाव क्षेत्र है। इसके दूषित होने पर जघन प्रदेश का सौन्दर्य क्षीण होता है। शुभप्रभाव में होने पर पुरुष मल्लयुद्ध के योग्य जंघा वाला तथा स्त्री सुरति प्रवीण होती है।
इस नक्षत्र में उत्पन्न जातक उदार, सत्यवान्, आदरणीय, शिष्ट, सदाचारी, अनुशासित, प्रसादचित्त, प्रगल्भ, उच्चाभिलाषी, प्रज्ञावान्, आस्थावान्, चिन्तनशील, देवपूजक, गुरुत्वयुक्त होते हैं। वे प्राचीनता के पोषक, उत्कर्षचेता आशावादी, मन्त्रशक्ति सम्पन्न, अच्छेपरामर्शदाता, क्षमी, लोक हितैषी, धार्मिक अनुष्ठानों पर व्यय करने वाले, अभिमानी, दृढ निश्चयी तथा स्वस्थ होते हैं। मूलजातक सदैव समय का सदुपयोग करते है। गुप्त कार्यों में संलग्न रहते हैं, अभिचार कर्म में दक्ष एवं विरोधियों पर विजय पाने में समर्थ होते हैं।
२०. #पूर्वाषाढ_नक्षत्र
यह धनुराशि में १३° २०' से लेकर २६° ४०' पर्यन्त व्याप्त है। इसका अधिपति ग्रह शुक्र है। यह नक्षत्र जघनतट के सौन्दर्य एवं मादकता की कुञ्जी है। जाँघों की पुष्टता एवं मसृणता पर इसका अधिकार है। इस के दूषित होने पर जाँघें लोमयुक्त एवं अस्निग्ध होती हैं।
इस नक्षत्र में पैदा होने वाले व्यक्ति दूसरों से सम्मानवाने वाले बलकामी, बहुयोनि भोगी, दुर्बलकाय, गायन-वादन-प्रेमी, नाट्यशास्त्री, अभिनेता, स्त्रियों से मान पाने वाले, मानसिक ऊहापोह से युक्त तथा शीघ्र सफलता पाने वाले होते हैं। ये मुक्तहस्त, आवश्यकता से अधिक दानी, भद्र, व्यापक दृष्टिकोण वाले, न्यायी, संवेदनशील, संतुलित, सहनशील, अनुचर, अपव्ययी, अत्याधुनिक, संग्रही, निर्बल हृदय, वचनबद्ध तथा स्वप्रशंसक होते हैं।
२१. #उत्तराषाढ_नक्षत्र
सूर्य के स्वामित्व वाला यह नक्षत्र अपने प्रथम चरण से धनराशि को २६° ४०' से ३०° तक तथा अपने शेष तीन चरणों से मकरराशि को ०° से १०° तक व्याप्त किये है। इसका प्रभाव क्षेत्र जानु घुटना है। इसके दूषित होने पर घुटने का दर्द होता है। गठिया, संधिवात जानु अस्थिघात होता है। चक्षुपीड़ा, हृदय रोग, उदर रोग, फुफ्फुसरोग, शीतपित्त, छाती में दर्द, अस्थिज्वर, चर्मरोग, कुष्ठ एवं क्षय होता है। सूर्य का नक्षत्र होने से ये रोग सूर्य की निर्बलता के कारण होते हैं।
इसके प्रथम चरण में पैदा होने वाले जातक सूर्य और गुरु के प्रभाव के कारण प्रायः अध्ययनशील, कठिन विषयों के ज्ञाता, महत्वाकांक्षी जीवन के अभिलाषी, पुष्ट शरीर, श्रेष्ठ बुद्धि से युक्त होते हैं। शेष तीन वरणों में पैदा होने वाले सूर्य और शनि के मिश्र प्रभाव के कारण कूटनीतिज्ञ, निम्नस्तर का आचरण करने वाले, प्रशासन में दक्ष, योजनबद्ध ढंग से काम करने वाले, आलोचनाप्रिय एवं वैज्ञानिक प्रतिभा के धनी होते हैं। ये आलसी और दीर्घसूत्र होकर भी दूसरों को उपदेश करते हैं।
२२. #श्रवण_नक्षत्र
इसका स्वामी चन्द्रमा है। यह मकरराशि में १०° से लेकर २३°२०' तक व्याप्त है। जानु और उसकी गति का यह नियन्त्रक है। इसके दोष युक्त होने पर घुटने की गतिशीलता क्षीण होती है, सूजन आती है। चन्द्रमा का नक्षत्र होने से हाथी पाँव का रोग होता है। शनि की राशि में स्थित होने से सन्निपात, सन्धिपात, शीतज्वर, वायुगुल्म, क्षय का प्रकोप होता है। चित्तविक्षेप, स्मरण हास, गहन चिन्ता का रोग चन्द्रमा के निर्बल होने से होता है।
इस नक्षत्र में पैदा होने वाले जातक मनस्वी, महिमामय, घोर उदात्त, सचेत, अतिवादी, आशंकित, विनोदी, हास्य प्रिय, बुद्धिमान् एवं विचारशील होते हैं। इनमें साहस की कमी होती है, व्यर्थ के कार्यों में लगे रहते हैं, कार्यों को टालते रहते हैं तथा बाद में पश्चाताप करते हैं। ये सहनशील, विष्णु के भक्त, अद्भुत धारणाशक्ति रखते हैं, आश्चर्यचकित करने वाले कार्य करते हैं। ये प्रसिद्ध होते हैं तथा सुन्दर साथी का वरण करते हैं। ये चंचल, मातृपितृ पूजक, अच्छे भोजन के शौकीन तथा शरीर से स्वस्थ होते हैं। शनि के क्षेत्र में होने से श्रवणजात लोग लालची, नीचमनोवृत्ति दोषदर्शी, चिड़चिड़े होते हैं ये विद्वान् होकर भी दुःखी होते हैं।
२३. #धनिष्ठा_नक्षत्र
इस नक्षत्र का पूर्वार्ध मकर राशि में २३° २०' से लेकर ३०° तक तथा उत्तरार्ध कुम्भराशि में से ६° ४०' पर्यन्त फैला है। नक्षत्र स्वामी मंगल है। घुटना और उसके नीचे का भाग इसके प्रभाव क्षेत्र ० में है। इस नक्षत्र के दूषित होने पर घुटने में व्रण बोट होने से लंगड़पन होता है। पूर्वार्धजात जातक अधिकांशतः अदूरदर्शी, उन्नति में व्यवधानपाने वाले शोचनीय आर्थिक स्थिति में रहने वाले श्रम एवं संघर्ष से उन्नति को प्राप्त होने वाले, स्त्री प्रेमी, क्रोधी, अभिमानी, लोहकर्मी, वाहन चालक, चालाक, घोर स्वार्थी, अवीर्यवान्, अपशब्दों का प्रयोग करने वाले, असंयत तथा पशुपालक होते हैं। उत्तरार्धजात जातक शीघ्रकोपी, शीघ्र उतेजित होने वाले वादविवाद करने वाले झगड़ालू, कार्य तत्पर, वैज्ञानिक मस्तिष्क, अनुसंधित्सु तकनीकी कार्यों में निपुण, परिश्रमी तथा तीव्र स्वरोच्चार करने वाले होते हैं। ये हृष्टपुष्ट, अध्यवसायी, व्यस्त मनोवृत्ति तथा गम्भीर होते हैं। अपने को धनी दिखाने की चेष्टा में ये दान भी देते हैं।
२४. #शतभिषा_नक्षत्र
इसका स्वामी राहु है। यह नक्षत्र कुम्भराशि में ६° ४०' से लेकर २०° पर्यन्त व्याप्त है। घुटने तथा ऐड़ी के बीच के भाग पर इसका प्रभाव आँका जाता है। इसके दूषित होने पर टाँगों में दर्द या टाँग की क्षति होती है। टोंग की पेशियाँ अशक्त वा ढीली पड़ जाती हैं।
इस नक्षत्र में पैदा होने वाले जातकों पर शनि और राहु का मिश्र प्रभाव होता है। ऐसे जातक अच्छी सूझबूझवाले तेजतर्रार मौलिक विचारधारा के धैर्यवान, अध्यवसायी, अतिवादी, उप, आलसी, अकर्मण्य, तंद्रिल, आरामपसन्द, सुस्त, ऐकान्तिक, प्राचीनता के पोषक, कूटनीतिज्ञ, छिद्रान्वेषी, भुलक्कड़, तृष्णालु होते हैं। अधिकतर ये सेवाकर्मी बिना सोचविचार के कार्य में जुट जाने वाले तथा मशीनी एवं तकनीकी कार्यों में रुचि लेने वाले होते हैं। ये प्रकृतितः उच्चविचार वाले, साधुसेवी, कट्टरपंथी, अहंकारी, हठी तथा अद्भुतकल्पनाशील होते हैं।
२५. #पूर्वाभाद्रपद_नक्षत्र
इसनक्षत्र के प्रथम तीन चरण कुम्भराशि में २०° से ३०° पर्यन्त तथा शेष चौथा चरण मीन राशि में ०° से ३°२०' पर्यन्त व्याप्त रहता है। इस नक्षत्र का अधिपति गुरु है। टाँग का निचला भाग, टखने है एवं ऐड़ी का ऊपरी भाग इस के प्रभाव में रहते हैं। इसके दूषित होने पर रखने की हड्डी में मोच, सूजन तथा गतिविक्षेप होता है।
इस नक्षत्र में पैदा होने वाले जातक शनि और गुरु के प्रभाव में रहते हैं। प्रथमतीन चरणों के अन्तर्गत जन्मने वाले अधिकांश लोग ईश्वरभक्त, स्त्रियों से संकोच करने वाले, आराम पसन्द, पूजापाठ में लीन रहने वाले होते हैं। ये अनायास सफलता प्राप्त करते हैं, वृद्धावस्था में अकस्मात् धन प्राप्त करते हैं। ये यात्राप्रिय, कवि, लेखक विधिज्ञ एवं सतर्क होते हैं। शिक्षण कार्य में विशेष रुचि होती है। ये मानवतापूर्ण व्यवहार करते हैं, आशावान् दार्शनिक ज्योतिषी वैयाकरण निस्स्वार्थी उदात्त हृदय शास्त्री एवं अनुशासित होते हैं। इस नक्षत्र पर बुरा प्रभाव होने पर ये नास्तिक, वेश्यागामी अशान्त एवं क्रूर जीवन जीते हैं। इस नक्षत्र के चौथे चरण में पैदा होने वाले दया की मूर्ति, महादानी, करुणासागर, ज्ञानी, सत्यव्रती, प्रियदर्शी, विनम्र, शुद्धात्मा तथा शान्तचित्त होते हैं। ये आजीविका के लिये सम्मानप्रद व्यवसाय का चयन करते हैं।
२६. #उत्तराभाद्रपद_नक्षत्र
इस नक्षत्र का स्वामी शनि है। यह नक्षत्र मीन राशि में ३° २०' से लेकर १६° ४०' तक विस्तृत है। इसका अधिकार पाँव के ऊपरी भाग पर है। इस नक्षत्र के दूषित होने पर नक्षत्रस्वामी शनि से संबंधित शारीरिक विकृतियाँ प्रकट होती हैं। सन्धिवात, स्नायुदौर्बल्य, उदरवायु कोप, आंत्रच्युति, सूखारोग, शीत, नर्सों का उभरना तथा पाँव में चोट लगती है।
इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले जातक शनि और गुरु के मिश्र गुणों से बने हुए होते हैं। अधिकांश जातक प्रसन्नचित्त, उन्नति के पथ पर अग्रसर होने वाले, स्त्रियों द्वारा मान पाने वाले, अकस्मात् हानि उठाने वाले, शत्रुओं से घिरे हुए, दैनन्दिन कार्यो में तन्द्रालु, विद्याव्यसनी, उच्चाचार युक्त एवं समाज में प्रतिष्ठित होते हैं। ये दृढ़ चरित्र, उदार, मुक्तहस्त, सुरूप, निरपेक्ष चिन्तक, दीनसेवी होते हैं। धर्मशास्त्र के ज्ञाता, अर्थ सञ्चय में कुशल, बलिष्ठ और मध्यम काय होते हैं। पुरातात्विक खोजों में ये विशेषरुचि रखते हैं। ये शिथिल कर्मी तथा अभियन्त्रविद् होते हैं।
२७. #रेवती_नक्षत्र
यह बुध का नक्षत्र है। मीनराशि में १६° ४०' से लेकर ३०° तक यह फैला है। इसका प्रभाव क्षेत्र पादतल, पादांगुलियाँ, पादांगुष्ठ एवं ऍड़ी का अधोभाग है। यह विकृत वा दूषित होने पर पादतल में बेवाई पैदा करता है, काँटे गड़ते हैं, पैर समाट होता है, जातक तेज दौड़ नहीं पाता। पाँव फूलता है, पाँव टेढ़ा होता है।
इस नक्षत्र में पैदा होने वाले अधिकांश जातक बुध एवं गुरु के मिश्र प्रभाव के कारण सात्विक वृत्ति के होते हैं। सरल स्वभाव, विद्यावान् गुणवान् धनवान् चरित्रवान् तथा द्युतिमान् होते हैं। ये द्विस्वभावी द्वैधी वा संशयी होते हैं। इनमें आध्यात्मिक शक्ति का एकाएक वा शीघ्र प्रस्फुटन होता है। ये चतुरता निकालने वाले, परिपक्व विचार वाले, निर्णय लेने के पूर्व बारम्बार सोचने वाले, तथा शुभेच्छु होते हैं। स्वामीभक्त, राष्ट्र भक्त निर्लज्ज तथा पूर्वानुमान में कुशल होते हैं। लेखन क्रीडन प्रकाशन अध्यापन में इनकी वृत्ति सहज होती है।
लेखन श्रेय - जगतगुरु शंकराचार्य
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