history of Maharana pratap singh
"महाराणा प्रताप के आदर्श थे उनके पितामह राणा सांगा"
प्रताप को बाल्यकाल में सदा यही बात खटकती रहती थी कि भारतभूमि विदेशियों की दासता की हथकड़ी और बेड़ी में सिसक रही है । वे स्वदेश की मुक्ति-योजना में सदा चिन्तनशील रहते थे । प्रताप बड़े साहसी बालक थे। स्वतन्त्रता और वीरता के भाव उनके रग-रग में भरे हुए थे। कभी-कभी बालक प्रताप घोड़े की पीठ से उतरकर बड़ी श्रद्धा और आदर से महाराणा कुम्भा के विजयस्तम्भ की परिक्रमा कर तथा मेवाड़ की पवित्र धूलि मस्तक पर लगाकर कहा करते थे कि "मैंने वीर क्षत्राणी का दुग्ध पान किया है, मेरे रक्त में महाराणा साँगा का ओज प्रवाहित है। हे चित्तौड़ के विजय स्तम्भ ! मैं तुमसे स्वतन्त्रता और मातृ-भूमि-भक्ति की शपथ लेकर कहता हूँ, विश्वास दिलाता हूँ कि तुम सदा उन्नत और सिसौदिया-गौरवके विजय प्रतीक बने रहोगे। शत्रु तुम्हें अपने स्पर्शसे मेरे रहते अपवित्र नहीं कर सकते।"
बालक प्रतापके सामने सदा राणा साँगाका आदर्श रहता था । वे प्रायः श्रद्धाञ्जलि समर्पित करते समय कहा करते थे कि 'मैं महाराणा साँगाके अधूरे कार्यको अवश्य पूरा करूंगा । उनके दिल्ली- विजय स्वप्नको सत्यमें रूपान्तरित करना ही मेरा जीवन- ध्येय है। वह दिन दूर नहीं है, जब दिल्लीका अधिपति साँगा के वंशज से प्राण की भीख माँगेगा ।'
प्रताप ने बचपन में ही यह सिद्ध कर दिखाया कि बाप्पा रावल की संतानका सिर किसी मनुष्य के आगे नहीं झुक सकता । बालक प्रताप ने राज्य-प्राप्ति का नहीं, देशकी बन्धनमुक्ति का व्रत लिया था ।
सोर्स - वीर बालक (गीताप्रेस) / संपादक - हनुमान प्रसाद पोद्दार 'भाई
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