नवरात्रि महोत्सव
नवरात्रि- नवम आयाम रन्ध्र या कमी है जिसके कारण नयी सृष्टि होती है, अतः नव का अर्थ नया, ९-दोनों है-
नवो नवो भवति जायमानो ऽह्ना केतुरूपं मामेत्यग्रम्। (ऋक् १०/८५/१९) = नव (९) से नया उत्पन्न होता है। दिनों के आरम्भ का सूचक (केतु) उषा पहले होता है।
सृष्टि का स्रोत अव्यक्त है, उसे मिलाकर सृष्टि के १० स्तर हैं , जिनको दश-होता, दशाह, दश-रात्रि आदि कहा गया है-
यज्ञो वै दश होता। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/१/६) = यज्ञ १० होता (निर्माता) है।
विराट् वा एषा समृद्धा, यद् दशाहानि। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, ४/८/६)
= विराट् से यह समृद्ध होता है, जो १० अहः (दिन) है।
विराट् वै यज्ञः। ...दशाक्षरा वै विराट् । (शतपथ ब्राह्मण १/१/१/२२, २/३/१/१८, ४/४/५/१९)
= विराट् ही यज्ञ है। विराट् के १० अक्षर हैं।
विराट् एक छन्द है जिसके प्रति पाद में १० अक्षर हैं। पुरुष (मनुष्य या विश्व) का कर्त्ता रूप भी अक्षर है, जो १० प्रकार से कार्य करता है-
अन्तो वा एष यज्ञस्य यद् दशममहः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/६/१) = इस यज्ञ का अन्त है जो १० वां दिन है।
अथ यद् दशरात्रमुपयन्ति। विश्वानेव देवान्देवतां यजन्ते। (शतपथ ब्राह्मण १२/१/३/१७ ) = अब जो १० रात्रि तक चलता है उसमें सभी देव देवों का यजन करते हैं (पुरुष सूक्त १५ में-देवों ने पुरुष पशु से विश्व की सृष्टि की)
प्राणा वै दशवीराः। (यजु १९/४८, शतपथ ब्राह्मण १२/८/१/२२)
= प्राण ही १० वीर हैं (१० प्रकार के प्राण, उप-प्राण, या १० दिन तक कार्य करने वाले)
२. मुख्य नवरात्र-वर्ष के ३६० दिनों में ४० नवरात्र होंगे। अतः यज्ञ के वेद यजुर्वेद में ४० अध्याय हैं, तथा ४० ग्रह हैं (ग्रह = जो ग्रहण करे)-यद् गृह्णाति तस्माद् ग्रहः। (शतपथ ब्राह्मण १०/१/१/५)
षट् त्रिंशाश्च चतुरः कल्पयन्तश्छन्दांसि च दधत आद्वादशम्।
यज्ञं विमाय कवयो मनीष ऋक् सामाभ्यां प्र रथं वर्त्तयन्ति। (ऋक् १०/११४/६)
= ३६ और ४ प्रकार के ग्रह (सोम-पात्र) में १२ प्रकार के छन्द (सीमाबद्ध) होते हैं। इस प्रकार कवि (स्रष्टा) यज्ञ की योजना करता है तथा ऋक् (पिण्ड) और साम (महिमा, तेज) द्वारा रथ (शरीर) को चलाते हैं।
४० नवरात्रके लिये महाभारत में युद्ध के बाद ४० दिन का शोक बनाया गया था, जो आज भी इस्लाम में चल रहा है। आजकल वर्ष में चन्द्रमा की १३ परिक्रमा के लिये १३ दिन का शोक मनाते हैं। ४० नवरात्रों में ४ मुख्य हैं-
(१) दैव नवरात्र-उत्तरायण के आरम्भ में जो प्रायः २२ दिसम्बर को होता है। भीष्म ने इसी दिन देह त्याग किया था। वे ५८ दिन शर-शय्या पर थे-युद्ध के ८ दिन बाकी थे, ४० दिन का शोक, ५ दिन राज्याभिषेक, ५ दिन उपदेश।
(२) पितर नवरात्र-दक्षिणायन आरम्भ-प्रायः २३ जून को।
(३) वासन्तिक नवरात्र-उत्तरायण में जब सूर्य विषुव रेखा पर हो।
(४) शारदीय नवरात्र-दक्षिणायन मार्ग में जब सूर्य विषुव रेखा पर हो।-ये दोनों मानुष नवरात्र हैं।
सभी नवरात्र इन समयों के चान्द्र मास के शुक्ल पक्ष में होते हैं-पौष, आषाढ़, चैत्र, आश्विन। आश्विन मास का नवरात्र सबसे अच्छा मानते हैं क्योंकि यह देवों की अर्द्ध-रात्रि है। रात्रि की शान्ति में ही सृष्टि होती है। मनुष्य का भी भोजन और कर्म दिन में होता है, पर शरीर का विकास रात्रि में सोते समय ही होता है।
शरत् काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी। (दुर्गा सप्तशती १२/१२)
३. कार्त्तिक की नव रात्रि-आकाश में ग्रह गति जानने के लिये क्रान्तिवृत्त है जो सूर्य के चारों तरफ पृथ्वी कक्षा के तल में है। पृथ्वी की घूर्णन गति जानने के लिये या सूर्य की पृथ्वी सतह पर उत्तरायण या दक्षिणायन जानने के लिये विषुव वृत्त है जो विषुव रेखा का अनन्त गोले की सतह पर प्रक्षेप है। उसी सतह पर क्रान्ति वृत्त भी है। दोनों परस्पर को २ विन्दुओं पर काटते हैं। यह किसी ग्लोब पर देखा जा सकता है। जिस विन्दु पर क्रान्तिवृत्त विषुव वृत्त से ऊपर उठता हुआ दीखता है, वहां सूर्य आने से विषुव संक्रान्ति होती है। जिस चान्द्र मास में यह संक्रान्ति होती है उससे वर्ष आरम्भ होता है। यहां पर दो रेखायें एक दूसरे को कैंची की तरह काटती हैं, अतः इस विन्दु को कृत्तिका (कैंची) कहते हैं। कलियुग आरम्भ में तथा उससे २६,००० वर्ष पूर्व यह विन्दु वहीं था जहां आकाश में कृत्तिका नक्षत्र दीखता है। २६,००० वर्षों में पृथ्वी का अक्ष शङ्कु आकार में १ चक्र पूरा करता है। इसे ब्रह्माण्ड पुराण में ऐतिहासिक मन्वन्तर कहा है जो स्वायम्भुव मनु से कलियुग आरम्भ का समय है। इसके २ मुख्य भाग किये गये हैं-इसके ७१ युग हैं, अतः प्रत्येक युग ३६० वर्ष से कुछ अधिक होगा जिसे दिव्य वर्ष कहा जाता है। स्वायम्भुव से वैवस्वत मनु तक प्रायः १६,००० वर्ष या ४३ युग बीते थे तथा उसके बाद कलि आरम्भ तक प्रायः १०,००० वर्ष या २८ युग बीते। वैवस्वत मनु के बाद ऐतिहासिक युग गणना शुरु हुई, जो १२,००० वर्षों का है। सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि क्रमशः ४८००, ३६००, २४००, १२०० वर्षों के हैं। यह अवसर्पिणी (घटता क्रम) है। उसके बाद उत्सर्पिणी में विपरीत क्रम से कलि, द्वापर, त्रेता आते हैं। २४,००० वर्षों का चक्र जल प्रलय का चक्र है जो पृथ्वी अक्ष के घूर्णन (अयन चक्र) तथा पृथ्वी की मन्दोच्च गति का संयुक्त चक्र है। पृथ्वी का कक्षा में जो सबसे दूर (उच्च) का विन्दु है वहां उसकी गति सबसे मन्द होती है, अतः उसे मन्दोच्च कहते हैं। मन्दोच्च स्थान पर पृथ्वी को सबसे कम गर्मी मिलती है। जब उसी स्थान पर सूर्य सबसे दक्षिण विन्दु पर हो तो उस कारण भी उत्तरी गोलार्ध में शीत होता है। दोनों के संयुक्त प्रभाव से उत्तरी भाग में हिम युग होता है। जब दोनों विपरीत दिशा में होंगे तो जल प्रलय का समय होगा। आधुनिक ज्योतिष में १९२३ का मिलांकोविच सिद्धान्त के अनुसार २१६०० वर्ष में संयुक्त चक्र है, १ लाख वर्ष में मन्दोच्च चक्र तथा २६,००० वर्ष में विपरीत दिशा में अयन चक्र। भारत में २४,००० वर्ष का हिम चक्र लेने का अर्थ है कि यहां मन्दोच्च का ३१२,००० वर्ष का दीर्घकालिक चक्र लिया गया है।
१/२६००० + १/१००००० = १/२१६००
१/२६००० + १/३१२००० = १/२४०००
व्यवहार में यही ठीक है क्योंकि इस चक्र के अनुसार हर अवसर्पिणी के त्रेता में जल प्रलय तथा उत्सर्पिणी त्रेता में हिमयुग आता है। इस चक्र के अनुसार स्वायम्भुव मनु या ब्रह्मा आद्य त्रेता में हुए थे। यदि उनके द्वारा यह युग व्यवस्था होती तो उनसे सत्य युग का आरम्भ होता। वैवस्वत मनु के बाद कलियुग आरम्भ तक सत्य, त्रेता, द्वापर के ४८०० + ३६०० + २४०० = १०,८०० वर्ष बीत चुके थे। इसमें ३६० वर्षों के ३० युग होंगे। पर ब्रह्म पुराण के अनुसार यम के काल में तथा जेन्द अवेस्त्या के अनुसार जमशेद (वैवस्वत यम) के काल में जल प्रलय हुआ था जो प्रायः १००० वर्ष तक प्रभावी रहा। इसमें ७२० वर्षों के २ युग लेने पर कलि आरम्भ तक व्यवहार में २८ युग होते हैं।
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/९)-स वै स्वायम्भुवः पूर्वम् पुरुषो मनुरुच्यते॥३६॥ तस्यैक सप्तति युगं मन्वन्तरमिहोच्यते॥३७॥
= वह पूर्व पुरुष (जिससे सभ्यता आरम्भ हुई) स्वायम्भुव को मनु कहते हैं। उसके ७१ युगों को मन्वन्तर कहते हैं।
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२९)-त्रीणि वर्ष शतान्येव षष्टिवर्षाणि यानि तु। दिव्यः संवत्सरो ह्येष मानुषेण प्रकीर्त्तितः॥१६॥
= ३६० मनुष्य (सौर) वर्षों का १ दिव्य सम्वत्सर होता है।
त्रीणि वर्ष सहस्राणि मानुषाणि प्रमाणतः। त्रिंशदन्यानि वर्षाणि मतः सप्तर्षिवत्सरः॥१७॥
= ३०३० मानुष वर्ष (यहां चन्द्र की १२ परिक्रमा ३२७ दिन में) का सप्तर्षि वत्सर होता है। (इसी पुराण में अन्य स्थान पर २७०० दिव्य = ३६५.५ दिन का सौर वर्ष का सप्तर्षि वत्सर कहा है)
षड्विंशति सहस्राणि वर्षाणि मानुषाणि तु। वर्षाणां युगं ज्ञेयं दिव्यो ह्येष विधिः स्मृतः॥१९॥
= २६,००० मनुष्य (सौर) वर्ष का स्वायम्भुव (विधि) का युग (मन्वन्तर) है। (इसमें प्रायः ३६० वर्ष के ७१ युग होंगे)
चत्वारि भारते वर्षे युगानि कवयोऽब्रुवन्। कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुष्टयम्॥२३॥
चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणां च कृत युगम्। तस्य तावच्छती सन्ध्या सन्ध्यांशः सन्ध्यया समः॥२५॥
इतरेषु ससन्ध्येषु ससन्ध्यांशेषु च त्रिषु। एकन्यायेन वर्तन्ते सहस्राणि शतानि च॥२६॥
त्रीणि द्वे च सहस्राणि त्रेता द्वापरयोः क्रमात्। त्रिशती द्विशती सन्ध्ये सन्ध्यांशौ चापि तत् समौ॥२७॥
कलिं वर्ष सहस्रं तु युगमाहुर्द्विजोत्तमाः। तस्यैकशतिका सन्ध्या सन्ध्यांशः सन्ध्यया समः॥२८॥
= कवियों ने केवल भारत वर्ष में ही ४ युग कहे हैं-कृत (सत्य), त्रेता, द्वापर, कलि। कृत युग ४००० वर्ष का है, उसके पूर्व तथा बाद में ४०० वर्षों के सन्ध्य तथा सन्ध्यांश हैं।बाकी ३ युगों में भी जितने हजार वर्षों के युग हैं, उतने सौ वर्षों की सन्ध्या तथा सन्ध्यांश हैं। त्रेता द्वापर में क्रमशः ३ तथा २ हजार वर्ष हैं तथ ३००, २०० वर्षों के सन्ध्या-सन्ध्यांश हैं। कलि में द्विजों ने १००० वर्ष कहा है जिसमें १००-१०० वर्ष के सन्ध्या-सन्ध्यांश हैं।
मत्स्य पुराण अध्याय २७३-अष्टाविंश समाख्याता गता वैवस्वतेऽन्तरे। एते देवगणैः सार्धं शिष्टा ये तान् निबोधत॥७६॥
चत्वारिंशत् त्रयश्चैव भविष्यास्ते महात्मनः। अवशिष्टा युगाख्यास्ते ततो वैवस्वतो ह्ययम्॥७७॥
= वैवस्वत (मनु) के बाद २८ (युग) बीत चुके हैं (३६० वर्षों के)। इतने युग देवों के साथ थे (महाभारत के बाद कलि आरम्भ तक)। बाकी के विषय में समझो। महात्मा (स्वायम्भुव) के बाद ४३ युग हुए। बाकी (२८) वैवस्वत के बाद हुए।
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व १/४-षोडशाब्दसहस्रे च शेषे तद्द्वापरे युगे॥२६॥
= (स्वायम्भुव के पूर्व आद्य) उसके बाद दूसरे युग (वैवस्वत तक) १६,००० वर्ष हुए थे।
द्विशताष्टसहस्रे द्वे शेषे तु द्वापरे युगे॥२८॥ तस्मादादमनामासौ पत्नी हव्यवतीस्मृता॥२९॥
= स्वायम्भुव के बाद दूसरे युग में १६,००० वर्ष बीते। उनको आदम तथा उनकी पत्नी को हव्यवती कहते थे।
ओषधयः फलमूलानि रोमतस्तस्य जज्ञिरे। एवं पश्वौषधीः सृष्ट्वा न्ययुञ्जत् सोऽध्वरे प्रभुः॥४५॥
= उसके (ब्रह्मा के) लोम से ओषधि, फल-मूल उत्पन्न हुए। उस प्रभु ने अध्वर (अहिंसक यज्ञ) द्वारा पशु और ओषधी बना कर उनको उपयोग में लगाया। यह कल्प के आरम्भ में त्रेता के आरम्भ में हुआ।(या ओषधीः पूर्वे जाता देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा। मनै नु बभ्रूणामहं शतं धामानि सप्त च॥ ऋक् १०/९७/१)
तस्मादादौ तु कल्पस्य त्रेतायुगमुखे तदा ॥४६॥ (वायु पुराण, अध्याय ९) = कल्प के आदि में त्रेता के आरम्भ में था।
त्रेतायुगमुखे पूर्वमासन् स्वायम्भुवेऽन्तरे। देवा यामा इति ख्याताः पूर्वं ये यज्ञसूनवः॥ (वायु पुराण ३१/३)
= स्वायम्भुव के पूर्व आदि त्रेता युग में देवों को याम कहते थे, उनकी यज्ञ से उन्नति हुई। (पुरुष सूक्त १६-यज्ञ द्वारा यज्ञ की व्यवस्था कर पूर्व देव उन्नति के शिखर पर पहुंचे थे)
ससमुद्रा करवती प्रतिवर्षं निवेशिता। स्वायम्भुवेऽन्तरे पूर्वमाद्ये त्रेतायुगे तथा॥(वायु पुराण ३३/५) = प्रति वर्ष के निवेश (यज्ञ के उत्पादन में) उनकी सम्पत्ति समुद्र के समान विस्तृत हो गई। यह स्वायम्भुव के पूर्व त्रेता युग में हुआ।
४. कृत्तिका यज्ञ-कृत्तिका से आकाश में पृथ्वी का यज्ञ या रास आरम्भ होता है। इसके विपरीत विन्दु पर द्वि शाखा मिलती हैं, अतः इसे विशाखा कहा गया है। विपरीत होने के कारण यह कृत्तिका की पत्नी है। कृत्तिका रास का आरम्भ होने से कृष्ण तथा उसका विपरीत विन्दु विशाखा को राधा भी कहते हैं।
तन्नोदेवासोअनुजानन्तुकामम् .... दूरमस्मच्छत्रवोयन्तुभीताः।
तदिन्द्राग्नी कृणुतां तद्विशाखे, तन्नो देवा अनुमदन्तु यज्ञम्।
नक्षत्राणां अधिपत्नी विशाखे, श्रेष्ठाविन्द्राग्नी भुवनस्य गोपौ॥११॥
पूर्णा पश्चादुत पूर्णा पुरस्तात्, उन्मध्यतः पौर्णमासी जिगाय।
तस्यां देवा अधिसंवसन्तः, उत्तमे नाक इह मादयन्ताम्॥१२॥ (तैत्तिरीयब्राह्मण३/१/१)
= देव कामना पूर्ण करते हैं, इन्द्राग्नि (कृत्तिका) से विशाखा (नक्षत्रों की पत्नी) तक बढ़ते हैं। तम वे पूर्ण होते हैं, जो पूर्णमासी है। तब विपरीत गति आरम्भ होती है। यह गति नाक कॆ चारो तरफ है।
पृथ्वी पर भी वार्षिक रास कार्त्तिक पूर्णिमा से आरम्भ होता है। यह ऋतु चक्र का वह समय है जब सभी समुद्री तूफान शान्त हो जाते हैं और समुद्री यात्रा आरम्भ हो सकती है। अतः सोमनाथ के समुद्र तट पर कार्त्तिकादि विक्रम सम्वत् का आरम्भ हुआ था। गणित के अनुसार कार्त्तिक कृष्ण पक्ष आश्विन मास में होगा उसके बाद शुक्ल पक्ष से कार्त्तिक मास और कार्त्तिकादि वर्ष आरम्भ होगा। वर्ष और मास सन्धि पर दीपावली होती है।
५. दीपावली की सन्धि-इस सम्वत्सर चक्र की सन्धि पर जब नया वर्ष आरम्भ होता है दीपावली में ३ सन्धियां होती हैं-
असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृतंगमय .. बृहदारण्यकउपनिषद् (१/३/२८)
स्वयं दीपावली अन्धकार से प्रकाश की तरफ गति है जिसके लिये दीप जलाते हैं-तमसो मा ज्योतिर्गमय।
दीपावली के १ दिन पूर्व यम-चतुर्दशी होती है। १४ भुवन अर्थात् जीव सर्ग है, उनकी परिणति यम है, अतः कृष्ण चतुर्दशी को यम-चतुर्दशी कहते हैं, रात्रि तिथि के अनुसार यह शिवरात्रि भी होती है। दीपावली के एक दिन बाद अन्न-कूट होता है जो इन्द्र की पूजा थी (भागवत पुराण)। भगवान् कृष्ण ने इसके बदले गोवर्धन पूजा की थी। गोकुल में इस नाम का पर्वत है। गो-वर्धन का अर्थ गोवंश की वृद्धि है जो हमारे यज्ञों का आधार है। शरीर की इन्द्रियां भी गो हैं, जिनकी वृद्धि रात्रि में होती है जब हम सोते हैं। आत्ः १ दिन पूर्व से १ दिन बाद का पर्व मृत्यु से अमृत की गति है-मृत्योर्मा अमृतं गमय।
दीपावली से २ दिन पूर्व निर्ऋति (दरिद्रता) होती है जिसे दूर किया जाता है। इसके लिये धन-तेरस पर कुछ बर्तन या सोना खरीदा जाता है। दीपावली के २ दिन बाद यम-द्वितीया है। यहां यम का अर्थ मृत्यु नहीं, यमल = युग्म या जोड़ा है। इसका अर्थ भाई-बहन का जोड़ा यम-यमी है। अतः इस दिन को भ्रातृ-द्वितीया कहते हैं जब बहन भाई की पूजा करती है। यह असत् (अव्यक्त, अस्तित्व हीन) से सत् (सत्ता, व्यक्त) की गति है-असतो मा सद् गमय।
६. श्री सूक्त में अलक्ष्मी नाश-श्रीसूक्त में निर्ऋति या अलक्ष्मी दूर करने का वर्णन है-
क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्। अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात्।८। =भूख प्यास से मलिन बड़ी बहन अलक्ष्मी को मैं नष्ट करता हूं। (हे लक्ष्मी देवी, आप) सर्व असम्पत्ति और असमृद्धि को मेरे घर से उठा कर फेंक दें। (अभूति, निर्णुद = यम, मृत्यु। अलक्ष्मी, असमृद्धि, क्षुत्-पिपासा = दरिद्रता, धनहीनता, भूख)।
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्य पुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्।९। = सुगन्धित, अपराजेय, नित्य समृद्ध, गाय, अश्व आदि बहुत पशुओं से समृद्ध और सभी भूतों की स्वामिनी लक्ष्मी को मैं यहां बुलाता हूं।
अन्न, लोक और गो की वृद्धि-
मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि। पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः।१०।
= मनोरथ, सङ्कल्प, वाणी का सत्य, पशुओं के दूध आदि (अथवा पशुओं का समूह, पशुओं के साथ आत्मीयता) और पञ्चविध) अन्न हम प्राप्त करें। सम्पत्ति एवं यश मेरा आश्रय लें।
कर्दमेन प्रजा भूता मयि सम्भव कर्दम। श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्।११। = (लक्ष्मी जी) स्वयं अपने पुत्र कर्दम के कारण पुत्रवती हैं। इसलिये हे कर्दम! आप मेरे घर में निवास करें और (उस) कमल माला वाली श्रीदेवी का मेरे वंश में निवास करायें। (कर्दम = मिट्टी, कीचड़, भूमि से ही उत्पादन होता है, उसमें कुछ कीचड़ भी लगता है)।
श्री-सूक्त पाठ का फल वही है जो दीपावली का फल है-
अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने। धनं मे जुषतां देवि सर्व कामांश्च देहि मे।१८।
= हे महा धन वाली! तुम अश्व, गौ, धन देने वाली हो। मेरे लिये धन जुटाओ तथा सभी कामनाओं की पूर्ति करो।
पद्मानने पद्म विपद्म पत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि। विश्वप्रिये विश्वमनोनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि संनिधत्स्व।१९।
पुत्र-पौत्रं-धनं-धान्यं-हस्त्यश्वादि गवे रथम्। प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु मे।२०।= (हे लक्ष्मी!) तुम सभी प्रजाओं की माता हो। (अतः) मुझे पुत्र, पौत्र, धन, धान्य, हाथी, घोड़ा, गौ, रथ दो, तथा दीर्घायु करो।
धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः। धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणं धनमस्तुते।२१।
= ये सभी मेरे धन हों-अग्नि, वायु, सूर्य, वसु, इन्द्र, बृहस्पति, तथा वरुण।
श्री को चन्द्र के समान प्रकाशित, हिरण्य जैसा तेज और प्रभासा (चमकदार) है, जो दीपावली का दीप-दान है-
हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्ण रजतस्रजाम्। चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो ममावह।१।
= सुनहरे एवं पीले वर्ण वाली, सुवर्न पुष्पों एवं चान्दी के पुष्पों की माला पहनी हुईं, चन्द्र सी आह्लादक, सुवर्णमय देह वाली लक्ष्मी को, हे सर्वज्ञ अग्नि देव! मेरे पास भेजो।
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलंतीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्। तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे।५।
= मैं यहां अत्यन्त कान्तिमान्, १४ लोकों में कीर्ति से देदीप्यमान, देवों से सेवित, उदार, हाथ में कमल लिये, चन्द्र जैसी प्रकाशित उस श्री देवी की शरण में जाता हूं, जो मेरी अलक्ष्मी दूर करे।
७. गो और राधा-राध्नोति सकलान् कामान् तस्मात् राधेति कीर्तिता। (देवीभागवत पुराण, ९/५०/१८)
= सभी कामनाओं को पूर्ण करती है इसलिये राधा नाम से विख्यात है।
गवामप व्रजं वृधि कृणुष्व राधो अद्रिव: । (ऋग्वेद, १/१०/७)
= गौ के रहने तथा चलने का स्थान बढ़ाओ, जिससे अद्रि (पर्वत) में स्थित सम्पत्ति (राधा) मिले।
दासपत्नीरहि गोपा अतिष्ठन् । (ऋग्वेद, १/३२/११) दास पत्नी और अहि (वृत्र) के बन्धन से गौ को मुक्त करो।
त्वं नृचक्षा वृषभानु पूर्वी: कृष्णास्वग्ने अरुषो वि भाहि । (ऋग्वेद, ३/१५/३) तुम मनुष्यों को स्वस्थ रखती हो, वृषभ द्वारा अनु-पूर्वी अर्थात् वंश परम्परा चलती है। कृष्ण को अरुष (रोगमुक्त) तथा तेजस्वी करती हो।
तमेतदधारय: कृष्णासु रोहिणीषु च। परुष्णीषु रुशत् पयः।। (ऋग्वेद, ८/९३/१३)
= (हे इन्द्र!) तुमने कृष्ण, रोहिणी, परुष्णी (काली, लाल, चितकबरी) गायों में पौष्टिक दूध निर्मित किया। (३ रंग की गायें प्रकृति के ३ गुण हैं जिनको ३ रंग की अजा भी कहा गया है, जिनसे बहुत प्रकार की प्रजा उत्पन्न होती है-श्वेताश्वतर उपनिषद् ४/५-अजामेकां लोहित शुक्ल कृष्णां बह्वी प्रजाः सृजमानां सरूपाः)
कृष्णा रुपाणि अर्जुना वि वो मदे। विश्वा अधिश्रियो धिषे विवक्षसे॥( ऋग्वेद, १०/२१/३)
= हमारे आनन्द (मद) के लिये कृष्ण और अर्जुन (अदृश्य सम्पत्ति श्री, दृश्य सम्पत्ति लक्ष्मी) का निर्माण तथा धारण करती हो तथा इस प्रकार विश्व का आधार हो।
ब्राह्मणादिन्द्र राधस: पिबा सोमं ऋतून् अनु। तवेद्धि सख्यमस्तृतम् (ऋग्वेद, १/१५/५) = ब्रह्मज्ञों द्वारा इन्द्र की आराधना होती है, या इन्द्र को आधार देते हैं, इन्द्र से सोम पीते हैं, दोनों की मित्रता अटूट है। (गीता ३/१०-देव और मनुष्य एक दूसरे की पूजा करते हैं तो दोनों को श्रेय मिलता है)
इन्द्रावरुण वामहं हूवे चित्राय राधसे ।। (ऋग्वेद, १/१७/७)
= इन्द्र वरुण दोनों को तृप्त करते हैं, जिससे कई प्रकार की (चित्र) सम्पत्ति मिले।
अपामिव प्रवणे यस्य दुर्धरं राधो विश्वायु शवसे अपावृतम्॥ (ऋग्वेद, १/५७/१)
= जिससे कठिन सम्पत्ति का सहज प्रवाह होता है, तथा विश्व को आयु तथा रक्षा देती है।
ऋक् (१/८/१८, १/६२/८, १/१२१/५, १/१४१/७,८; १/१४०/३; १/२२/७, १/१३४/४)
आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥ (ऋग्वेद, १/३५/२, वाजसनेयि सं. ३३/४३, ३४/३१, तैत्तिरीय सं. ३/४/११/२, मैत्रायणी सं. ४/१२/६ या १९६/१६)
= कृष्ण (आकर्षण केन्द्र, प्रकाश भी आकर्षित करने के कारण कृष्ण विवर) के चारो तरफ लोक (रजसा = गतिशील रचना) बना रहता है। उसमें अमृत (मूल पदार्थ रस, अपरिवर्तित) तथा मर्त्य (जन्म तथा नाश वाला) दोनों हैं। सविता (सूर्य) का रथ (शरीर, सौरमण्डल) हिरण्य (तेज युक्त) है। (ऋक् १०/१८९/३) के अनुसार जहां तक सूर्य का तेज (आकाशगंगा से ) अधिक है (वि-राजते) वह सूर्य का क्षेत्र (वाक्) है। इस तेज क्षेत्र को साथ लेकर सूर्य चलता है और भुवनों को देखता है (तारा समूह ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करता है)
भागवत:-इत्थं शरत्स्वच्छ जलं स गो गोपालकोऽच्युत: । (१०/२१/१)
हेमन्ते प्रथमे मासि नन्द व्रज कुमारिका:। (१०/२२/१)
हरिवंश:- विष्णु पर्व अध्याय २०-
कृष्णस्तु यौवनं दृष्ट्वा निशि चन्द्रमसो वनम्। शारदीं च निशां रम्यां मनश्चक्रे रतिं प्रति ॥१५॥
तास्तु पङ्क्तीकृता: सर्वा रमयन्ति मनोरमम्। गायन्त्य: कृष्णचरितं द्वन्द्वशो गोपकन्यका: ॥२५॥
एवं स कृष्णो गोपीनां चक्रवालैरलंकृत:। शारदीषु सचन्द्रासु निशासु मुमुदे सुखी॥३५॥
तैत्तिरीय ब्राह्मण :- नक्षत्राणामधिपत्नी विशाखे श्रेष्ठाविन्द्राग्नी भुवनस्य गोपौ ।
राधा "वृषभानु" और "कृत्तिका" की पुत्री हैं। वेदों के रहस्य को ही भागवत और गीता में वर्णित किया गया है। गो किरणें हैं। व्रज - किरणों का स्थान द्यौ है। विशाखा से भरणी तक वृत्ताकार स्थित गोपियाँ हैं। राधा धन अन्न समृद्धि आह्लादिनी हैं। सिद्धि सफलता भूमि सुवर्ण राज्य विजय सुख बल विद्या हैं। मेघरूपी गोवर्धन पर्वत (अद्रि) वर्षा की समाप्ति पर शरद ऋतु की शारदी पूर्णिमा पर कृष्ण ने रास के लिये कहा।
८. अक्षय यज्ञ-वैशाख शुक्ल तृतीया को अक्षय तृतीया होती है, जिस दिन कृषि यज्ञ का आरम्भ होता है। इसके ठीक आधे वर्ष (१८३ दिन) बाद अक्षय नवमी कार्त्तिक शुक्ल तृतीया को होती है जब गो नवमी पूर्ण होती है। गो यज्ञ का स्वरूप है। यज्ञ चक्र ही उत्पादन का अक्षय स्रोत है जिसे आजकल अक्षय ऊर्जा (Renewable source of energy) कहते हैं। इस यज्ञ चक्र से बचा हुआ अन्न ही खाया जाता है जिससे यज्ञ चक्र और उसके द्वारा सभ्यता चलती रहे।
गीता, अध्याय ३-सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरो वाच प्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥१०॥ यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ॥१३॥
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥१६॥
= आरम्भ में ही प्रजापति ने यज्ञ के साथ प्रजा कीसृष्टि की तथा कहा कि अपनी इच्छा की हर वस्तु इसी से उत्पन्न करो। यज्ञ चक्र से बचा हुआ अन्न (दृश्य या अदृश्य उत्पादन) खाना चाहिये, जिसए मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है। जो इस यज्ञ चक्र को नहीं चलाता है वह अघ (घ = ४ पुरुषार्थ नही करने वाला) केवल इन्द्रिय सुख के लिये व्यर्थ ही जीता है।
माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसा आदित्यानां अमृतस्य नाभिः।
प्रनु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट॥ (ऋक् ८/१०१/१५)
= गौ रुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री, आदित्यों की बहन तथा अमृत की नाभि है। विवेकी (चिकितुषे) लोगों से कहता हूं कि अनागा (निरपराध, बाधा दूर करने वाली) तथा अदिति (सतत् सृष्टि चलाने वाली गौ को मत मारो।
आकाश में गौ किरण है जिससे जीवन चलता है। यह वसु (घने पिण्ड) से उत्पन्न होती है (सूर्य से तेज, पृथ्वी की वनस्पति आदि), अतः उसकी पुत्री है। उससे रुद्र (तेज का अनुभव, गति) आदि उत्पन्न होते हैं। तेज का क्षेत्र आदित्य है, वही निर्माण क्षेत्र भी है, अतः गौ आदित्य की बहन है। इन तीनों प्रकार से गौ सनातन यज्ञ अर्थात् अक्षय स्रोत है। अतः यह अमृत की नाभि है।
पृथ्वी रूपी गौ यज्ञ का स्थान है, ४ निर्माण स्रोत इसके ४ स्तन कहे गये हैं (भूमि, जल, वायु और जीव मण्डल)। इन वसुओं से यज्ञ चलता है। गौ के यज्ञ से सभी क्रिया चल रही है, या मनुष्य के ११ रुद्र रूपी इन्द्रिय कम कर रही है। इससे सनातन सभ्यता या आदित्य चल रहा है।
✍🏻 शास्त्री जी ।
Comments