नागपंचमी विशेष स्त्रोत्र एवं अरिष्ट शांति के उपाय
नागपंचमी विशेष स्त्रोत्र एवं अरिष्ट शांति के उपाय
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।।श्री सर्प सूक्तम।।
ब्रह्मलोकेषु ये सर्पा शेषनाग परोगमा:। नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।1।।
इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: वासुकि प्रमुखाद्य:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।2।।
कद्रवेयश्च ये सर्पा: मातृभक्ति परायणा।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।3।।
इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: तक्षका प्रमुखाद्य।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।4।।
सत्यलोकेषु ये सर्पा: वासुकिना च रक्षिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।5।।
मलये चैव ये सर्पा: कर्कोटक प्रमुखाद्य।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।6।।
पृथिव्यां चैव ये सर्पा: ये साकेत वासिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।7।।
सर्वग्रामेषु ये सर्पा: वसंतिषु संच्छिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।8।।
ग्रामे वा यदि वारण्ये ये सर्पप्रचरन्ति।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।9।।
समुद्रतीरे ये सर्पाये सर्पा जंलवासिन:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।10।।
रसातलेषु ये सर्पा: अनन्तादि महाबला:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।11।।
(१)नाग गायत्री मंत्र :-
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ॐ नव कुलाय विध्महे विषदन्ताय धीमहि
तन्नो सर्प: प्रचोदयात ll
(२) सर्प-भय-नाशक मनसा-स्तोत्र—
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महाभारत में जब राजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने तक्षक से बदला लेने के लिए सर्पनाश का यज्ञ किया तो सब सांप मरने लगे , उस समय उन्हें आस्तिक नामक मुनि ने बचाया जो भगवान शिव की मानस पुत्री मनसा देवी के पुत्र थे।
मनसा देवी के इस स्तोत्र का पाठ करने से सर्प दंश से रक्षा होती है और मनसा देवी का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
ध्यानः-
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चारु-चम्पक-वर्णाभां, सर्वांग-सु-मनोहराम् ।
नागेन्द्र-वाहिनीं देवीं, सर्व-विद्या-विशारदाम् ।।
।। मूल-स्तोत्र ।।
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।। श्रीनारायण उवाच ।।
नमः सिद्धि-स्वरुपायै, वरदायै नमो नमः ।
नमः कश्यप-कन्यायै, शंकरायै नमो नमः ।।
बालानां रक्षण-कर्त्र्यै, नाग-देव्यै नमो नमः ।
नमः आस्तीक-मात्रे ते, जरत्-कार्व्यै नमो नमः ।।
तपस्विन्यै च योगिन्यै, नाग-स्वस्रे नमो नमः ।
साध्व्यै तपस्या-रुपायै, शम्भु-शिष्ये च ते नमः ।।
।। फल-श्रुति ।।
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इति ते कथितं लक्ष्मि ! मनसाया स्तवं महत् ।
यः पठति नित्यमिदं, श्रावयेद् वापि भक्तितः ।।
न तस्य सर्प-भीतिर्वै, विषोऽप्यमृतं भवति ।
वंशजानां नाग-भयं, नास्ति श्रवण-मात्रतः ।।
(३) यह मनसा देवी का महान् स्तोत्र कहा है । जो नित्य भक्ति-पूर्वक इसे पढ़ता या सुनता है – उसे साँपों का भय नहीं होता और विष भी अमृत हो जाता है । उसके वंश में जन्म लेनेवालों को इसके श्रवण मात्र से साँपों का भय नहीं होता ।
जो पुरुष पूजा के समय इन बारह नामों का पाठ करता है, उसे तथा उसके वंशज को भी सर्प का भय नहीं हो सकता। इन बारह नामों से विश्व इनकी पूजा करता है। उसके सामने उग्र से उग्र सर्प भी शांत हो जाता है।
जरत्कारुर्जगद्गौरी मनसा सिद्धयोगिनी ।
वैष्णवी नागभगिनी शैवी नागेश्वरी तथा ।। जरत्कारुप्रियाऽऽस्तीकमाता विषहरीति च ।
महाज्ञानयुता चैव सा देवी विश्वपूजिता ।।
द्वादशैतानि नामानि पूजाकाले तु यः पठेत् ।
तस्य नागभयं नास्ति तस्य वंशोद्भवस्य च ।।
(४)कालसर्प योग एवम राहु केतु शांति हेतु:-
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चांदी और तांबे के 1-1 जोड़ी सर्प लेकर नाग देवता मन्दिर में अर्पण करें। दूध से अभिषेक एवं चन्दन का तिलक कर भोग अर्पण करें।
नाग मन्दिर न हो तो शिव लिंग पर इन्हें चढ़ाकर ॐ नमः शिवाय या महामृत्युंजय मंत्र से यथासम्भव अधिकाधिक जप करते हुए अभिषेक करें।
(५) नाग देवता कृपा प्राप्ति मंत्र :-
इस मंत्र का जप करते हुए सांप की बाम्बी या किसी बड़े वृक्ष जिसके नीचे बिल या कोटर हो मिट्टी के पात्र में दूध चढ़ाएं।
'सर्वे नागा: प्रीयन्तां मे ये केचित् पृथ्वीतले।
ये च हेलिमरीचिस्था ये न्तरे दिवि संस्थिता:।।
ये नदीषु महानागा ये सरस्वतिगामिन:।
ये च वापीतडागेषु तेषु सर्वेषु वै नम:।।'
अर्थात् - संपूर्ण आकाश, पृथ्वी, स्वर्ग, सरोवर-तालाबों, नल-कूप, सूर्य किरणें आदि जहां-जहां भी नाग देवता विराजमान है। वे सभी हमारे दुखों को दूर करके हमें सुख-शांतिपूर्वक जीवन दें। उन सभी को हमारी ओर से बारंबार प्रणाम...।
(६) धन धान्य प्राप्ति:-
मान्यता है कि पृथ्वी के नीचे पाताल पुरी के सप्तलोकों में एक नाग लोक भी है जिसके राजा नागदेवता हैं। पाताल लोक सोने चांदी, बहुमूल्य रत्नों और विभिन्न प्रकार के दुर्लभ मणियों से भरा है। नाग देवता की नियमित पूजा करने पर वो प्रसन्न होकर वे अपने अमूल्य खजाने से व्यक्ति को धन और ऐश्वर्य से परिपूर्ण कर देते हैं।
।।नवनाग स्तोत्र ll
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अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलं
शन्खपालं ध्रूतराष्ट्रं च तक्षकं कालियं तथा
एतानि नव नामानि नागानाम च महात्मनं
सायमकाले पठेन्नीत्यं प्रातक्काले विशेषतः
तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत
ll इति श्री नवनाग स्त्रोत्रं सम्पूर्णं ll
(७) भय नाश एवं रक्षा हेतु:-
श्री नाग स्तोत्र
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अगस्त्यश्च पुलस्त्यश्च वैशम्पायन एव च ।
सुमन्तुजैमिनिश्चैव पञ्चैते वज्रवारका: ॥१॥
मुने: कल्याणमित्रस्य जैमिनेश्चापि कीर्तनात् ।
विद्युदग्निभयं नास्ति लिखितं गृहमण्डल ॥२॥
अनन्तो वासुकि: पद्मो महापद्ममश्च तक्षक: ।
कुलीर: कर्कट: शङ्खश्चाष्टौ नागा: प्रकीर्तिता: ॥३॥
यत्राहिशायी भगवान् यत्रास्ते हरिरीश्वर: ।
भङ्गो भवति वज्रस्य तत्र शूलस्य का कथा ॥४॥
॥ इति श्रीनागस्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥
(८) कन्या के विवाह हेतु:-
जिन कन्याओं के विवाह में विलंब हो रहा हो वे नाग देवता के मंदिर में ऐसी प्रतिमा जिसमें नाग नागिन का जोड़ा हो या दो नाग सम्मुख आलिंगन बद्ध यानी लिपटे हुए हों, उनका देवी एवं देवता का अलग अलग श्रृंगार चढ़कर कर विधि विधान से पूजन करवाएं।
(९) विशेष भोग:-
नाग देवता की प्रसन्नता के लिए इस दिन खीर बनाकर पूजन कर भोग लगाकर किसी पेड़ की नीचे खीर रख दें।
( विशेष बात: ये खीर सिर्फ नाग देवता के लिये होती है इसे भूलकर भी स्वयम न खायें न ही बच्चों या किसी अन्य व्यक्ति को दें, इसलिए थोड़ी ही बनाएं और भगवान को अर्पित कर दें)
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*सर्पों से भी हम बहुत कुछ सीख सकते हैं।*
*नाग पंचमी विशेष लेख*
सर्प के सम्बन्ध में किम्वदन्तियाँ जितनी अधिक प्रचलित हैं उनसे भी अधिक वे तथ्य हैं जिन्हें अप्रचलित और अविदित ही कहना चाहिए। साधारण तथा सर्प को मृत्यु दूत के रूप में चित्रित किया जाता है। ईसाई और मुसलिम धर्म में ईश्वर के प्रतिद्वन्द्वी शैतान का सर्प रूप में वर्णन हुआ है। हिन्दू धर्म में हर प्राणी और हर वस्तु में भगवान का दर्शन करने के दार्शनिक आदर्श के अनुरूप सर्प का स्वरूप भी श्रेष्ठता के साथ सम्बद्ध किया गया है किन्तु साथ ही उसकी गरिमा को उच्चस्तरीय स्थान दिया गया है।
शेष नाग के फन पर यह धरती टिकी हुई है। विष्णु भगवान की शैया सर्प पर हैं, शंकर भगवान ने सर्प के अलंकार धारण किये हैं। समुद्र मन्थन में सर्प की रस्सी का प्रयोग हुआ है जैसे पौराणिक उपाख्यानों में उसकी महिमा का वर्णन है। जहाँ अशुभ वर्णन है वहाँ भी उसे भगवान के समतुल्य ही कूता गया है। कालिया नाग का दर्प दमन करने में श्री कृष्ण को स्वयं जुटना पड़ा, भागवत् के इस उपाख्यान में ईसाई धर्म के सर्प शैतान जैसा ही वर्णन है। राजा परीक्षित का सर्प द्वारा काटा जाना इसके पश्चात् कलियुग का आगमन-जन्मेजय द्वारा नागयज्ञ करके विकृति के निराकरण का प्रयास जैसी आख्यायिकाएँ भी सर्प की ध्वंसात्मक शक्ति पर प्रकाश डालती है। योग साधना में कुण्डलिनी जागरण विद्या की सर्प सर्पिणी संयोग के रूप में चर्चा की जाती है। इस प्रकार के वर्णन यह बताते हैं कि सर्प की अपनी कुछ भली बुरी विशेषताएँ उच्च स्तर की हैं और ऐसी हैं जिन पर गम्भीरता पूर्वक चिन्तन करके जीवनोपयोगी तथ्य हस्तगत किये जाने चाहिए।
ईसाई धर्म की पौराणिक गाथा है कि शैतान ने साँप बन कर हौवा को बहकाया कि वह ईश्वरी आदेश की अवज्ञा करे। इस पर अल्लाह ने शैतान रूपी साँप को शाप दिया कि ‘तेरी और हौवा की सन्तान में सदा बैर रहेगा।’ सो साँप और मनुष्य का बैर तो प्रख्यात है, पर बात यहीं समाप्त नहीं हुई। उस शैतान सर्प ने अपने वंशजों से भी बैर ही बना रखा है।
सर्पों के बारे में अनेकानेक किम्वदन्तियाँ प्रचलित हैं। ह्यूम सर्प के बारे में कहा जाता है कि उसकी फुफकार से पेड़ जल जाता है बल्कि स्नेक के बारे में कहा जाता है कि वह दुधारू जानवरों के थनों से लिफ्ट कर दूध पी जाता है। अमेरिका के किसान ऐसा मानते थे कि घिर जाने पर सर्प अपने आपको काट कर आत्म हत्या कर लेता है। एशिया और अफ्रीका के अनेकों देशों में किसी न किसी रूप में सर्प पूजा प्रचलित हैं उसे कहीं देवताओं का ही दैत्यों का प्रतिनिधि मानकर पूजा-पत्री द्वारा संतुष्ट करने का प्रयत्न किया जाता है। भारत में मान्यता है कि कृपण व्यक्ति अपनी भूमि में छिपी सम्पदा की रक्षा के लिए सर्प बनते हैं और उसका उपयोग किसी को नहीं करने देते। किसी सर्प को मार देने पर उसके साथी मारने वाले से बदला लेते हैं। और मौका पाते ही काट लेते हैं ऐसा कहा जाता है।
साँप मनुष्यों का ही शत्रु नहीं, अपने जाति बन्धुओं और वंशजों का भी शत्रु है। वह मात्र मनुष्यों के ही प्राण हरण नहीं करता, मात्र चिड़ियों, चूहों पर ही आक्रमण करके संतुष्ट नहीं होता वरन् वही व्यवहार उनके साथ भी करता है जो उसके साथी सहचर ही नहीं वंशज होने का भी दावा करते हैं। क्रोधी दुष्ट को अपने पराये का ज्ञान रह भी कैसे सकता है। सच तो यह है कि साँप ही साँप का सबसे बड़ा शत्रु है। जाति विनाश में उसकी भूमिका अन्य सब प्राणियों से आगे है।
ब्लैक केसर नाग का प्रिय भोजन अपने ही स्वजातीय हैं। न मिलने पर वह मिलते जुलते सगोत्री गार्टर सर्पों से भी काम चला लेता है। स्नेक स्टार्स का भी यही हाल हैं। वे दूसरे जीवों को तभी खाते हैं जब अपनी जाति वालों की उपलब्धि सर्वथा असंभव हो जाय।
सर्पिणी प्रजनन के बाद क्षुधातुर होती है। अण्डे देते समय उसमें जो क्षणिक मातृत्व उदय होता है। वह ज्यादा समय ठहरता नहीं। जैसे ही बच्चे निकलते हैं वैसे ही उसके मुँह में पानी भर आता है। वात्सल्य और क्षुधा निवृत्ति में से उसे दूसरे का चयन करना भला लगता है और भी सँपोला उसकी नजर में आ जाय उसी को निगल जाती है। जो इधर उधर खिसक जायें वे ही भाग्यशाली जीवित बचते हैं।
क्रोधी, दुष्ट और क्रूर प्रकृति बाहर वालों को ही हानि पहुँचाती हो सो बात नहीं, उसकी प्रतिक्रिया स्वजनों कुटुम्बियों, आत्मीयों के लिए भी कम घातक नहीं होती। मोटे तौर से यह समझा जाता है कि दुष्ट मनुष्य बाहर के लोगों पर आक्रमण करके उनका अहित करके जो कमाते हैं, उससे अपने परिवार को लाभ पहुँचाते हैं पर वास्तविकता इससे भिन्न है। दुष्टता की कमाई, स्वजनों को तत्काल कुछ विलास सामग्री भले ही जुटा दे पर अन्ततः उनमें भी इतने दुर्गुण मनोविकार भर देती है कि वे बिना परिश्रम प्राप्त हुए वैभव से मिलने वाले क्षणिक सुख का मूल्य भविष्य में अत्यन्त दुःखद परिणाम भोगते हुए चुकाते हैं। समय पड़ने पर वे अपने आश्रितों और आत्मीयों के लिए भी विषधर जैसा दंशन करने में नहीं चूकते। तनिक-तनिक से कारणों अथवा संदेहों की आड़ में लोग अपने स्त्री बच्चों तक की हत्या कर देते हैं। दूसरों के साथ प्रेमालाप को सहन न कर सकने की ईर्ष्या के आवेश में कितने ही नर पिशाच अपनी पत्नी की समस्त सेवा सहायता को भुला कर उसके रक्त पिपासु बन जाते हैं। ऐसे समाचार आये दिन पढ़ने को मिलते रहते हैं। तथाकथित देवताओं से अमुक सुख सुविधा का वरदान मिलने के प्रलोभन में निरीह पशु पक्षियों का ही नहीं अपने या पड़ोसी के बच्चों की बलि चढ़ाने वाले दुरात्माओं की संख्या भी कम नहीं है। दुष्टता तो एक अग्नि है जो दूरवर्ती और निकटवर्ती का भेद भाव किये बिना सर्वतोमुखी अहित ही करती है। सर्प में पायी जाने वाली यह दुष्टता उसे मृत्युदूत, घृणित, शैतान आदि के रूप में सर्वत्र निन्दनीय ठहराती है। उसकी आतंक वादी प्रकृति से लोग डरते तो हैं पर साथ ही उसका मुँह कुचलने में भी नहीं चूकते।
भारत में पाये जाने वाले विषधरों में कोबरा, किरात, कोरल, वाइपर, कोडर, करायत, वफई, राजनाग, रसेल प्रमुख हैं। इनका पूरा दंश लग जाय तो 10 मिनट से लेकर 2 घण्टे की अवधि में मनुष्य दम तोड़ देता है। अजगरों की लम्बाई 35 फीट तक पाई जाती है उनका वजन तीन मन तक देखा गया है। हिरन, सुअर, सियार, जंगली भैंसा जैसे जानवरों का वह अपनी कुण्डली में ऐसे जकड़ता है कि उनकी हड्डी पसली चूर-चूर हो जाती है, इसके बाद वह अपनी शिकार को प्रायः समूची ही निगलता है और पचने तक आराम से पड़ा सुस्ताता रहता है। शेर के साथ मल्लयुद्ध में कभी-कभी अजगर के हाथ ऐसी पकड़ आ जाती है कि शेर का चूरा करके उसे पूरी तरह निगल जाय।
इतनी सामर्थ्य का उपयोग यदि कोई प्राणी रचनात्मक दिशा में कर सके तो उसकी उपयोगिता बैल या घोड़े से कई गुनी अधिक सिद्ध हो सकती है। पर यदि उसका उपयोग घातक प्रयोजनों के लिए किया जाय तो इससे अजगर की तरह अशान्ति ही उत्पन्न की जा सकती है।
संसार में प्रायः 2500 जाति के सर्प पाये जाते हैं। भारत में इनकी 400 जातियाँ ही देखने में आई हैं। इनमें से 80 प्रकार के ही विषधर होते हैं। हर वर्ष भारत में प्रायः डेढ़ लाख मनुष्यों को साँप काटते हैं पर उनमें से 10 प्रतिशत की ही मृत्यु होती है क्योंकि काटने वाले सभी सर्प अधिक विषैले नहीं होते।
कुछ की दुष्टता से उस वर्ग के अन्य निर्दोषों को भी कलंकित होना पड़ता है। समस्त सर्प विषधर और दुष्ट प्रकृति के न होने पर भी बेचारे अकारण घृणास्पद समझे जाते हैं और लोग उनका भी जीवन दुर्लभ कर देते हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए मनुष्य समाज में यह प्रथा प्रचलित है कि हर वर्ग अपने समाज के लोगों को दुष्प्रवृत्तियों से रोकने बचाने के हर सम्भव प्रयत्न करे। समझाने बुझाने से न सुधरे तो उसे बहिष्कृत एवं दण्डित करके कड़े कदम भी उठाये। राजसत्ता और समाज संगठन द्वारा ऐसा किया भी जाता है। इसी कारण मानव समाज की बहुत कुछ दुष्टताएँ नियन्त्रण में रहती है। सर्पों को भी यदि यह सहज बुद्धि होती तो सम्भवतः वे भी क्रोधी और दुष्ट सर्पों को बहिष्कृत एवं दण्डित करने में न चूकते।
सर्प का विष उसकी पैराटाइड ग्रन्थि से निकलता है। उसकी संरचना प्रोटियोलाइटिक, एजाइम, फास्फेटाइडेज और न्यूरोटा निक्स से होती है।
सर्प विष के बारे में यह कथन सत्य है कि काटे हुए स्थान का रक्त मुँह से चूसा जा सकता है। और उससे रोगी को विष मुक्त किया जा सकता है पर यह बात तभी सही होगी जो चूसने वाले के मुँह में किसी प्रकार का छोटा बड़ा जख्म न हो। सपेरे साँप को मार कर खा जाते हैं यह भी सत्य है। साँप का विष बिना किसी हानि के पचाया जा सकता है। वह घातक तभी होता है जब रक्त में सीधा जा मिलता है।
सर्प विष रक्त में मिल कर ही ‘हिमोलिसस’ नामक पदार्थ उत्पन्न करता है। रक्त कोशिकाएँ फट जाती है, आमाशय और गुर्दे में रक्त जमा होना प्रारम्भ हो जाता है। त्वचा ठंडी पड़ जाती है। हाथ पैर जीभ आदि सुन्न होते-होते मस्तिष्क अपना काम करना बंद कर देता है और बेहोशी के बाद दिल धड़कना बंद हो जाता है।
हाँगकाँग पर में सर्प का पित्ताशय बड़े चाव से खाया जाता है। ब्रह्मा में एक बार अन्वेषी चिडविन का दल जंगलों में फँस गया तो उसने अजगर खाकर अपना काम कई सप्ताह तक चलाया। अमेरिका में गार्टर साँप का माँस डिब्बों में बन्द बिकता है।
संसार में फैली हुई दुष्प्रवृत्तियाँ अपने लिए सर्प विष की तरह तभी घातक बनती हैं जब वे अपने रक्त में-जीवन क्रम में मिलने घुलने लगें। यदि उन्हें आत्मसात् न किया जाय तो विकृतियाँ कितनी ही भयंकर क्यों न हो किसी का कुछ अहित नहीं कर सकतीं। सर्प विष को सीधा रक्त में न मिलने देने की सावधानी रखने वाले कालकूट के साथ अठखेलियाँ करते रहते हैं और उसके दुष्प्रभाव से सहज ही बचे रहते हैं।
इतना ही नहीं बुद्धिमान लोग तो सर्प विष जैसे भयंकर पदार्थ से भी लाभ उठा लेते हैं। उससे सम्पदा उपार्जन करते हैं और सदुपयोग करके उस विष को अमृत में बदलते हैं। सर्प विष से भयानक रोगों का शमन करने वाली औषधियाँ बनती हैं और उसका संग्रह करने वाले सम्पन्न एवं यशस्वी बनते हैं।
भारत में हाफकिन इंस्टीट्यूट बम्बई, सर्प शोध-कार्य में प्रवृत्त है, साथ ही सर्प विष संग्रह करके उन्हें विदेशों में चिकित्सा अनुसंधानों के लिए भेजता है और दुर्लभ विदेशी मुद्रा कमाता है। सर्प विष सोने की अपेक्षा पन्द्रह गुने अधिक मूल्य का होता है। पाले हुए सर्पों में से नाग एक बार में 200 मिलीग्राम, काँडर 150 मिली ग्राम करायत 26 मिली ग्राम और अफई 6 मिली ग्राम विष देता है।
दुष्टता को परिष्कृत करके उसे सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त कर सकना एक महत्त्वपूर्ण कला है। सपेरे विषैले साँप पकड़ने का धन्धा करते हैं, इससे वे अनेकों को भययुक्त करते हैं साथ ही बीन बजा कर उन्हें लहराने का खेल दिखा कर दर्शकों का मनोरंजन एवं अपने लिए आजीविका उपार्जन करते हैं। शेष शैयाशायी विष्णु और सर्पालंकार धारी शंकर के चित्र इसी प्रयोग की सफलता का संकेत करते हैं। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, अम्बपाली, अजामिल, विल्वमंगल, अशोक आदि के पूर्व पक्षी दुष्टजन उत्तर भाग में कितने श्रेष्ठ बन सके, इस तथ्य पर दृष्टिपात किया जाय तो यह स्वीकार किया जाएगा कि उच्चस्तरीय सद्भावनाएँ बुरों को भी भला बना सकती हैं। इस तथ्य को स्मृति पलट पर बनाये रखने के लिए हिन्दू धर्म में एकाध त्योहार सर्प पूजा का भी है।
श्रावण शुक्ल पंचमी को हर साल नाग पंचमी का त्यौहार आता है उस दिन जगह-जगह सपेरे अपने साँप पिटारे लेकर पहुँचते हैं, सर्प का दर्शन कराते हैं, धर्म भीरु लोग उन्हें दूध पिलाते हैं और सपेरों को दान दक्षिण देते हैं।
महाराष्ट्र के साँगली नगर में कोई 70 मील दूर शिराला गाँव में बसन्त पंचमी पर होने वाली सर्प पूजा अद्भुत है। वहाँ दूर गाँवों के लोग इकट्ठे होते हैं और सर्प नृत्य का आनन्द मनाते हैं। सपेरे तथा दूसरे लोग अपने पकड़े सर्पों को लेकर पहुँचते हैं। गाते बजाते हैं। सर्प, फन फैलाकर उनके साथ-साथ नृत्य करते हैं। कहते है कि बाबा गोरख नाथ ने यह आशीर्वाद दिया था कि इन 32 गाँवों में सर्प किसी को नहीं काटेंगे और न इन गाँवों के लोग उन्हें मारेंगे। आश्चर्य है कि यह लोकोक्ति सही भी होती चली आती है। पूना से इस्लाम पुर तक पक्की सड़क जाती है। इसके बाद शिराला तक 10 मील पैदल चलना पड़ता है।
इस प्रकार के उदाहरण बताते हैं कि एक पक्षीय सद्भावना भी दूसरे पक्ष की दुष्टता को ऋजुः एवं मृदुल बनाने में बहुत हद तक सफल हो सकती है।
⭐नागपंचमी का पावन त्योहार सबके लिए मंगलकारी हो॥⭐
🌻 नागपंचमी अर्थात अंधकार में प्रकाश की सम्भावना। नागों से भी यह शिक्षा लेना चाहिए कि जब तक नागदेवता को आप छेडेगे नही, तकलीफ नही देगे तक तक आपको कोंई क्षति नही पहुचायेगे ,जिस तरह भोलेनाथ प्राणी मात्र के कल्याण के लिए जहर पीकर देव से महादेव बन गए उसी प्रकार हमें भी समाज में व्याप्त निंदा, अपयश, उपेक्षा,और आलोचना रुपी जहर को पीकर मानव से महामानव बनना होगा।
🌻भगवान् शिव का एक नाम आशुतोष भी है। जल धारा चढ़ाने मात्र से प्रसन्न होने वाले आशुतोष भगवान् शिव का यही सन्देश है कि आपको अपने जीवन में जो कुछ भी और जितना भी प्राप्त होता है, उसी में प्रसन्न और सन्तुष्ट रहना सीखें।
🌻आओ इस महापर्व को सार्थक बनायें। भगवान् शिव के चरणों में प्रणाम करते हुए अपनी बुराइयों को दूर करने का व्रत हम सब लें ॥ क्योंकि - श्रावण में शिवजी का पूजन करते हुए बिचार करें। शिव होने का अर्थ है, एक ऐसा जीवन जो मैं और मेरे से ऊपर जिया गया हो। जहाँ जीवन तो है मगर जीवन के प्रति आसक्ति नहीं ,और जहाँ रिश्ते तो हैं ,मगर किसी के भी प्रति राग और द्वेष नहीं।
🌻जहाँ प्रेम तो है मगर मोह नहीं और जहाँ अपनापन तो है मगर मेरापन नहीं। जहाँ ऐश्वर्य तो है मगर विलास नहीं ,और जहाँ साक्षात माँ अन्नपूर्णा है मगर भोग नहीं। जहाँ नृत्य भी है, संगीत भी है, त्याग भी है और योग भी है मगर अभिमान नहीं।
🌻मित्रों पौराणिक कथाओं के आधार पर भगवान शेषनाग बनकर पूरी तरह से हमारी रक्षा का दायित्व लिया है ,यह पृथ्वी सहस्र फनों पर टिकी हुई है ,भगवान विष्णु क्षीरसागर पर सोते है ,शिवजी के गले मे नागों का ही हार है ,राजा जनमेजय ने अपने पिता के मृत्यु का बदला लेने के लिए सर्पयज्ञ कराया था जिसे ,आस्तीक मुनि ने ही पंचमी के दिन सर्पयज्ञ बंद करबाया था, जिससे यह त्यौहार बडी धूम धाम से मनाया जाता है ,समुद्र मंथन के समय भी कालिया नाग को रस्सी बनाकर मथने का कार्य किया इस कारण दुष्ट व्यक्ति मे भी उपकार की भावना धर्म की भावना जागृति हो जाय तो वो भी पूजनीय बन जाता है ऐसा महापुरुषों का कथन है
🌻अतः इस त्योहार मे हम नागों की पूजा करते है नागकेसर बारह नामो से उनकी पूजा करते है ,धृतराष्ट्र ,कर्कोटक अश्वतर,शंखपाल ,पद्म ,कम्बल ,अनंत ,शेष ,वासुकी ,पागल्भ,तक्षक और कलिया इन नामो से पूजन करने से भगवान शिव तो प्रसन्न ही होते है साथ ही साथ नाग देवता भी हमे आक्षुण्य लाभ प्राप्त की प्राप्ति होती है ,धन यश,कीर्ति ,व्यापार आदि चीजो मे तरक्की होती है ऐसा शास्त्रो का मत है ॥
🌻अतः जीवन कीहर परिस्थिति मे , और जब हम विषमता में भी जीना सीख जाएँ, जब हम निर्लिप्त रह कर बांटकर खाना सीख जाएँ और जब हम काम की जगह राम में जीना सीख जाएँ, वास्तव में शिव हो जाना ही है। नागपंचमी का त्योहार हमारे लिए पूर्णतया कल्याणकारी सावित होगा ।अतः यह त्योहार सभी के लिए कल्याणकारी हो ,धन धान्यकारी हो ॥
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