સદગુરુ ભગવાન કી જય હો..
गुरु का जीवन में महत्व:-
सुमिरन मेरा गुरु करे, मैं पाया विश्राम….
“प्रकटे आपे आप”…….
यह सब सदगुरू के प्रति गहरी निष्ठा, श्रद्धा और गुरुमन्त्र के जाप से ही सम्भव है। इसलिए सदगुरु से दीक्षित होना जरूरी है।
गुरु शिवो गुरुर्देवो गुरुबंधु शरीरिणाम!
गुरुरात्मा गुरूजीर्वो गुरोरनयन्न विद्यते!!
सम्पूर्ण सृष्टि में सदगुरू ही शिव-सूर्य-चन्द्र हैं, वही ब्रह्मा-विष्णु महेश हैं। महाकाल और कालीरूप में घट-घट में बसने वाली ज्ञान की मूर्ति है। गुरु लक्ष्य पर पहुंचाता है, इसलिए ये लक्ष्मीरूप हैं। सदगुरु का महालक्ष्य शिष्य को महामुक्ति दिलाना होता है। गुरु की कृपा से ही आदिनाद द्वारा ब्रह्मज्ञान भीतर से प्रकट होता है। जो साधक "गुरुमन्त्र" का जाप करते हुए गुरुध्यान में रमा रहता है…..
अध्यात्म में इसे चिर-विश्राम कहा है।
बस, जिसके आगे कुछ नहीं…..
गुरुकृपा से गुदा और गुर्दे में स्पंदन होने लगता है। मस्तक में मन्त्र गूंजता है- “ॐ:
और फिर यह एहसास होने लगेगा,
अनुभव कर कह सकोगे….
सुमिरन मेरा गुरु करे, मैं पाया विश्राम….
गुरु की गरिमा...
गुरु और समुद्र दोंनो ही गहरे हैं – –
पर दोनों की गहराई में एक फर्क है ..
समुद्र की गहराई में इंसान डूब जाता है..
और – – –
गुरु की गहराई में इंसान तर जाता है ..!
गुरु खरा हो और समुद्र खारा हो,
तभी गहरे होते हैं।
दूसरी बात यह है कि…..गुरू और शिष्य दोनों का स्वस्थ रहना जरूरी है।
तीसरा पहलू भी जरूरी है..शिष्य में जिज्ञासा और गुरू में समाधान शक्ति बनी रहे।
गुरू-शिष्य में झगड़ा, वैमनस्य दुराव न हो। शिष्य में निरंतर त्याग की भावना बनी रहे।
गुरू में लोभ न हो। शिष्य में विराग श्रध्दा हो और गुरू में परम स्नेह हो।
अंधकार का हथियार गुरु..
अज्ञान, अविद्या बहुत ताकतवर होता है,
किन्तु ब्रम्हाविद्या उससे कई गुना शक्तिशाली है। गुरूकृपा से हमें भी ऐसी ब्रम्हविद्या सुलभ हो, जो हमारी अज्ञानता को नष्ट कर दें। ऐसा प्रकाश हो जाये कि सारा अंधकार दूर हो जाय।
वेदों में इसलिए उल्लेख है-
असतो मा सदगमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्युर्मा अमृतमगमय
है सदगुरू, हमें अंधकार यानि असत्य से प्रकाश अर्थात सत्य की ओर ले चलो! हमें मृत्यु झंझट, कष्ट-क्लेश से मुक्ति दिलाकर ईश्वर की तरफ ले चलो!
गुरु हमें यथार्थ में जीना सिखाता है…
गुरुगीता में कहा है कि….
गुरु वह अज्ञान तिमिर यानि अंधकार का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है।
सदगुरुकी पहचान..
सदगुरु कभी बचाता नहीं, मिटाता है,
तुम्हारे अंदर स्थित अज्ञान, राग, लोभ,
मोह, चिंता सप्त विकारों को मिटाता है।
जो बचाने वाले गुरू हैं…..
वर्तमान में उनके पीछे लाखों की भीड़ है, कोई गुरू ताबीज बांट रहा है, कोई राख,
तो कोई भभूत दे रहा है। हमें लगता है ,
कि इन सब टोटकों से लाभ हो रहा है।
गुरू की बड़ी कृपा है। गुरू बचा
रहा है, वे हमारी रक्षा कर रहे है।
इन अनसिखे, अज्ञानियों चेलों को यह पता नहीं है कि सच्चा गुरू तुम्हे मिटाएगा, बचाएगा कैसे? तुम्हें ताबीज से तम यानि अंधकार के बीच रखकर तुम्हे नहीं बचाएगा।
सदगुरु जानता है कि… यदि ये अब इस जन्म में बच गए, तो इससे बड़ा दुर्भाग्य कोई नहीं होगा। सदगुरु चमत्कार नहीं दिखाता वरन जन्म-मरण का चक्कर मिटाता है।
गुरू चक्कर और चमत्कार से मुक्ति दिलाता है।
अतः गुरू में पूर्णतः समर्पण ही
शिष्य का चित्र, चरित्र बदलकर जीवन को इत्र से महकता है। गुरु चरण में अर्पण से व्यक्ति स्वयं को दर्पण में देखने योग्य बना लेता है।
गुरु द्वारा दिया गया गुरु मन्त्र स्वतः सिद्ध होता है, क्योंकि गुरु-शिष्य परम्परा के अनुसार वही गुरुमन्त्र हमारे पूर्वज गुरुओं द्वारा हजारों वर्षों से जपा-अजपा होता है। गुरु हमारे गुरुर यानी अहंकार का नाशकर भाग्य के कपाट खोल देता है।
मंत्राणा देवता प्रोक्ता देवता गुरुरुपिणी।
अभेदेन भजेद्यस्तु तस्यसिद्धिरनुत्तमा।
गुरु शिरसि सन्चिंत्य देवता हॄदयाम्बुजे।
रसनायां मूलविद्या विद्या तेजोरुपा .
कैसे करें मन्त्र का जाप
इस श्लोक में सदगुरू से प्राप्त दीक्षा मन्त्र के जाप का विधान बताया है। लिखा है कि. सदगुरू और सदाशिव का शरीर के विभिन्न अंगों पर अधिष्ठान है यानि स्थित है,
इसलिए गुरु का ध्यान हमेशा मस्तक में, शिव का ध्यान ह्रदय में तथा गुरुमन्त्र या अन्य मन्त्र का ध्यान जिव्हा पर होना चाहिए। इन तीनो का एकीकरण होने पर सिद्धि और सम्पत्ति शीघ्र मिलती है।
¶ एक रहस्यमयी गुरु ज्ञान यह भी है कि…
मन्त्र का जाप अपनी नाभि में एकत्रित
यानि करने चाहिए। मतलब सीधा सा यह है कि..मन्त्र जपते समय ऐसा एहसास करें कि मन्त्र हमारी नाभि में इकट्ठा हो रहा है।
¶ गुरु में अश्रद्धा महापाप है।
¶ गुरु विश्वास और एहसास है,
¶ इन्हें केवल श्रद्धा से साधा जा सकता है।
¶ गुरु में विश्वास होने से हमारे तन-मन के
विष-विकार, अहंकार मिटकर…सब सपने साकार होने लगते हैं।
¶ गुरु के सानिध्य में व्यक्ति विषहीन होकर जन्म-जन्म की विषय वासना के बंधन से छूट जाता है।
श्वेतश्वतर उपनिषद में लिखा है कि…परमात्मा में प्रेम है और गुरु में ज्ञान।
अतः सदगुरू का ध्यान कर ईश्वर से जुड़कर प्रेम प्राप्ति का मार्ग सुलभ
हो जाता है।
¶ गुरु ज्ञान से हमारी अंतरात्मा का आराम मिलता है।
¶ ज्ञानदाता गुरु हमारे हृदय, आत्मा और मन-मस्तिष्क को सींचकर बुद्धि
पर पड़ा अज्ञान आवरण हटा देते हैं।
¶ अंतरंग की पावनता से बहिरंग जीवन सत्य और शांति से भर जाता है।.
¶ गुरु देते हैं-मन को अमन…
मन ” ऊर्जा का मुख्य संवाहक है, जो भावनाओं के अनुरूप काम, क्रोध, मोह,
लोभ एवं अहंकार के रूप में प्रकट होता है। वासना और इच्छाओं का मुख्य कर्ता-धर्ता है मन। मन पर विजय पाना असम्भव कार्य है, पर….. "गुरु मंत्र" के जाप से एवं गुरुकृपा द्वारा इसकी दिशा बदली जा सकती है।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुदेवो महेश्वरा!
गुरु साक्षात परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः!!
गुरु को समर्पित यह बहुत प्रसिद्ध श्लोक है..इसके भिन्न-भिन्न अर्थ हैं-
पहली बात तो यह है कि गुरु मूर्ति में जगत के तीनों पालनहारों का वास है।
सदगुरू के ध्यान, और गुरुमन्त्र के जाप से जीवन में १०० फीसदी परिवर्तन होता है। गुरुवाणी के द्वारा जीव के अंदर ज्ञान की गति का भाव उत्पन्न होता है। ज्ञान का अंकुर फूटने से ही गुरु ब्रह्मा का स्वरूप है।
जब शनै-शनै गुरु के उपदेशानुसार जीव, जब निवृत्ति मार्ग की और जाने लगता है, तब अंकुरित स्वरूप उस वृक्ष से ज्ञान रूपी चार स्कन्द एवं चार वेद कहलाते
हैं। जब उसी गोदों से शाखाएं फूटती हैं, वह १८ पुराण कहे जाते हैं। ऐसे अनंत
ज्ञान की अनुभूति होने पर सदगुरू शिष्य के लिये विष्णु स्वरूप हो जाता है।
सदगुरु की पूजा किये, सबकी पूजा होय…
गुरुभक्ति से शिष्य के सम्पूर्ण दोषों का नाश, प्रारब्ध के पापों तथा जन्म-मरण
की प्रक्रिया का संहार हो जाता है। फिर, गुरु में शिव और शिव में गुरु के दर्शन
का सौभाग्य मिलता है, इसीलिये गुरु को ब्रह्मा-विष्णु-महेश पारब्रह्म,
परमपिता और परमात्मा स्वरूप बताया गया है।
गुरु की ओर निहारिये, औरन से क्या काम..
¶ शिव तत्व एवं गुरु के अभाव में सारा संसार, जीव-जगत शव समान हो जाता है।
¶ परमेश्वर रूप गुरु की प्रार्थना- उपासना से तन-मन, प्राण, वाणी, हृदय पवित्र
पावन हो जाता है।
¶ गुरुज्ञान एवं कृपा से प्राणी अभय पद पाकर परमहंस हो जाता है।
¶ ज्ञानी, ग्रन्थ एवं गुप्त साधक कहते हैं..
“गुरु बिन भवनिधि तरइ न कोई”
गुरु के बिना इस भवसागर से कोई भी पार नहीं लगा सकता।
¶ ध्यान-समाधि, योगाभ्यास से सदगुरू में शिव की अनुभूति होने लगती है।
¶ गुरु के स्थूल रूप में कुछ नहीं धरा।
¶ गुरुमूर्ति का ध्यान करके वैभव, ऐश्वर्य और उनका चमत्कार देखा जा सकता है।
अपनी आत्मारुपी ज्योति को जलाए रखने हेतु गुरु से भावविभोर होकर
प्रार्थना करें कि…गुणों के गणित में वृद्धि करने वाले गुणातीत, भय-भ्रम
भगाकर, भाग्योदय करने वाले हे सदगुरू! आप कालातीत हैं। मुझे महाएश्वर्य दिलवा दो।
मुझ पर दया करो।
गुरु गीता ग्रन्थ में उल्लेख है कि…
व्यक्ति जैसे-जैसे सदगुरू से दूर होता चला जाता है, उसके जीवन में कष्टों का अंबार लगने लगता है।
गुरुमन्त्र के लगातार जाप से इन सब ताप-तकलीफ से मुक्ति मिल सकती है।
● गुरु के गीत..गुनगुनाने से जीवन गुदगुदा, हल्का हो जाता है।
● गुरुमन्त्र का जाप, ध्यान-साधना गुपचुप तरीके से करने का विधान है।
● अपने गुरु मंत्र को अन्य किसी ओर को न बताने का भी यही कारण है।
● बताने से शरीर की ऊर्जा क्षीण हो जाती है।
● तप नष्ट हो जाता है।
गुरु के प्रति गुमान करने से शिष्य गुमनामी के गहन अंधेरे में गुप्त हो जाता है।
गुरु के ज्ञान का अनुमान करना मतलब खुद को गुम करना है।
कवि रसाल के शब्दों में...
गुरुर व गुमान गयो, गुरु शरण पाएं के।
गुरु के ज्ञान को कभो गुमान या गवांना नहीं चाहिए।
गुरु अज्ञानी को, तो आसानी से मिल सकते हैं….लेकिन अभिमानी को मिलना मुश्किल है।
अहंकार से साकार व्यक्ति को निराकार के दर्शन असम्भव हैं।
वे लोग अंधे हैं, जो गुरु को ईश्वर से छोटा मानते हैं क्योंकि भगवान के रूठने पर, तो गुरु सहारा हैं लेकिन गुरु के नाराज होने के बाद जगत में कोई ठिकाना नहीं है।
गुरु की दयादृष्टि के लिए थोड़ी गुंजाइश और धैर्य की जरूरत है। बड़े-बड़े गुनाहगार गुरु की शरण में आकर पापमुक्त हो जाते हैं। बाल्मीक जैसे गुंडे, डाकू होने के बाद भी गुरु की कृपा से महान सन्त हुए और रामायण जैसे महाकाव्य की रचना हो सकी।
गुरु अंधकार की गुठली निकालकर बिखरे हुए जीवन को गुथ (जोड़) सकते हैं। गुंफन यानि उलझा भरा जीवन सुलझा सकते हैं।
गुरु ही गिरे हुए को गुम्बद यानि शिखर पर पहुंचाकर गद-गद कर सकते हैं। गुरु मित्र भी हैं और मार्गदर्शक भी हैं। गुरु ज्ञान का गुच्छा होता है।
गुरु ध्यान में स्थिर होना, सिद्धि को पा लेना है । “सिद्धि” अर्थात सुख-सम्पन्नता, यश-कीर्ति, आकांक्षा,इच्छा अभिलाषा की पूर्णता पूर्ति गुरु के ध्यान-योग के द्वारा की जा सकती है।
गुरु ध्यान में बहुत क्षमता है… क्योंकि वह एकाक्षी है। गुरु ध्यान से ही रामायण जैसे महाकाव्य की रचना हो सकी। गुरु का ध्यान ही काव्य को जन्म देता है और कबीर जैसे अक्खड़, अनपढ़ को ध्यान….ज्ञान की स्वर्ण कसौटी दे जाता है। गुरु ध्यान के कारण ही मीरा प्रेम दीवानी हुई ,तो राधा…. कृष्ण की दीवानी हो गई। दोनों की भक्ति में मात्र इतना फर्क है कि… एक कृष्ण दीवानी थी, तो दूसरी प्रेम दीवानी। गुरु का ध्यान उस अमरवृक्ष के नीचे खड़ा कर देता है, जहां कुछ मांगना नहीं होता। गुरु के ध्यान से अपने आप जिज्ञासाओं के द्वार खुलकर सार्थक हो जाते हैं।
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