ગોપી ચંદન નો મહિમા.
गोपी-चंदन की महिमा
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जहाँ गोपयों ने निवास किया था, उस निवास के कारण ही वह स्थान ‘गोपीभूमि’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।वहाँ गोपियों अंगराग से उत्पन्न उत्तम गोपीचन्दन उपलब्ध होता है। जो अपने अंगों में गोपीचन्दन लगाता है, उसे गंगा स्नान का फल मिलता है।
जो सदा गोपीचन्दन की मुद्राओं से मुद्रित होता है, अर्थात गोपीचन्दन का छापा तिलक लगाता है, उसे प्रतिदिन महानदियों में स्नान करने का पुण्यफल प्राप्त होता है।
जिसने सहस्त्र अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ कर लिये।
सब तीर्थों का सेवन, वह नित्य गोपीचन्दन लगाने मात्र से कृतार्थ हो जाता है, उससे भी दस गुना पुण्य पंचवटी की रज का है, उसकी अपेक्षा भी सौगुना पुण्य गोपीचन्दन रज का है।
गोपीचन्दन को तुम वृन्दावन की रज के समान समझे।
जिसके शरीर में गोपीचन्दन लगा हो, वह सैकड़ों पापों से युक्त हो तो भी उसे यमराज भी अपने साथ नहीं ले जा सकते, फिर यमदूतों की तो बात ही क्या है। पापी होने पर भी जो पुरुष प्रतिदिन गोपीचन्दन का तिलक धारण करता है, वह श्रीहरि के गोलोकधाम में जाता है, जहाँ प्राकृत गुणों का प्रवेश नहीं है।
सिन्धु देश का एक राजा था, जिसका नाम दीर्घबाहु था। वह अन्याय पूर्ण जीवन बिताने वाला, दुष्टात्मा और सदा वेश्या संग में रत रहने वाला था। उसने भारतवर्ष में सैकड़ों ब्रह्महत्याएं की थीं। उस दुरात्मा ने दस गर्भवती स्त्रियों का वध किया था। उसने शिकार खेलते समय अपने बाण-समूहों से कपिला गौओं की हत्या की थी।
एक दिन वह सिंधी घोड़े पर चढ़कर मृगया के लिये वन में गया। उसके कुपित मन्त्री ने राज्य के लोभ से उस महाखल नरेश को तीखी धार वाली तलवार से उस वन में ही मार डाला।
उसको पृथ्वी पर पड़ा और मृत्यु को प्राप्त हुआ देख यम के सेवक बांधकर परस्पर हर्ष प्रकाट करते हुए उसे यमपुरी ले गये। उस पापी को सामने खड़ा देख बलवान यमराज ने तुरंत ही चित्रगुप्त से पूछा- ‘इसके योग्य कौन-सी यातना है ?
चित्रगुप्त ने कहा----
महाराज ! निस्संदेह इसे चौरासी लाख नरकों में बारी-बारी से गिराया जाय और जब तक चन्द्रमा और सूर्य विद्यमान हैं, तब तक यह नरक का कष्ट भोगता रहे। इसने भारतवर्ष में जन्म लेकर एक क्षण भी कभी पुण्य-कर्म नहीं किया है। इसने दस गर्भवती स्त्रियों की और असंख्य कविला गौओं की हत्या की है। इसके सिवा अन्य पशुओं की हत्या तो इसने हजारों की संख्या में की है। इसलिये देवता और ब्राह्मणों की निन्दा करने वाला यह महान पापी है।
उस समय यम की आज्ञा से यमदूत उस पापात्मा को लेकर कुम्भीपाक नरक में ले गये, जिसका दीर्घ विस्तार एक सहस्त्र योजन का था। वहाँ विशाल कडा़ह में तपाया हुआ तेल भरा था। उस खौलते हुए तेल में फेन उठ रहे थे। यमदूतों ने उस पापी को उसी कुम्भीपाप में गिरा दिया। उसके गिरते ही वहाँ की प्रलयाग्नि के समान प्रज्वलित अग्नि तत्काल शीतल हो गयी।
जैसे प्रह्लाद को खौलते हुए तेल में फेंकने पर वही शीतल हो गया था, उसी प्रकार उस पापी को नरक में गिराने से वहाँ की ज्वाला शान्त हो गयी। यमदूतों ने उसी समय यह विचित्र घटना महात्मा यम को बतायी।
चित्रगुप्त के साथ धर्मराज बड़ी चिन्ता मे पडे़ और सोचन लगे- ‘इसने तो भूतल पर क्षणभर भी कभी कोई पुण्य नहीं किया है।
इसी समय धर्मराज की सभा में व्यासजी पधारे। उनकी विधिपूर्वक पूजा करके परम बुद्धिमान धर्मात्मा धर्मराज ने ने उन्हें प्रणाम करके पूछा।
यम बोले------
भगवन् ! इस पापी ने पहले कभी कहीं कोई सुकृत नहीं किया है। इसलिये जिसमें फेन उठ रहा था, ऐसे खौलते हुए तेल से भरे हुए तेल से भरे कुम्भीपाक के महान कड़ाह में इसको फेंका गया था। इसके डालते ही वहाँ की आग तत्काल शीतल हो गयी। इस संदेह के कारण मेरे चित्त मे निश्चय ही बड़ा खेद है।
श्रीव्यासजी ने कहा-
महाराज ! पाप-पुण्य की गति उसी प्रकार बड़ी सूक्ष्म होती है, जैसे सम्पूर्ण शास्त्रों के विद्वानों में श्रेष्ठ प्रज्ञावान पुरुषों ने ब्रह्म की गति सूक्ष्म बतायी है। दैवयोग से इसको स्वयं ही प्रत्यक्ष एवं सार्थक पुण्य प्राप्त हो गया है।
महामते ! जिस पुण्य से वह शुद्ध हुआ है उसे बताता हूँ; सुनो-----
जहाँ किसी के हाथ से द्वारका की मिट्टी पड़ी हुई थी, वहीं इस पापी की मृत्यु हुई है। उस मृतिका के प्रभाव से ही यह पापी शुद्ध हो गया है।
जिसके अंग में गोपीचन्दन का लेप हो, वह ‘नर’ से ‘नारायण’ हो जाता है। उसके दर्शनमात्र से तत्काल ब्रह्महत्या छूट जाती है।
यह सुनकर धर्मराज उसे ले आये और इच्छानुसार चलने वाले एक विशेष विमान पर उसे बैठाकर उन्होंने प्रकृति से परे वैकुण्ठधाम को भेज दिया।
गोपीचन्दन के सुयश का ज्ञान उनको अकस्मात उसी समय हुआ।
जो श्रेष्ठ मनुष्य गोपीचन्दन के इस माहात्म्य को सुनता है, वह महात्मा श्रीकृष्ण के परमधाम जाता है।
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