એકાદશી || વ્રત |કામિકા એકાદશી.

*आषाढ़ कृष्ण एकादशी*
- ब्रह्मवैवर्त पुराण अंर्तगत

अथाषाढ कृष्ण एकादशी-युधिष्ठिरजी बोले कि महाराज ! ज्येष्ठ शुक्ला निर्जला एकादशीका माहात्म्य श्रवण किया, अब आप आषाढकृष्ण एकादशीका क्या नाम होता है ? ॥१॥ हे मधुसूदन ! यह आप प्रसन्न होकर मुझको वर्णन कीजिये । श्रीकृष्णजी बोले कि, हे राजन् ! ब्रतोंमें उत्तम व्रतका वर्णन तुम्हारे सम्मुख कहता हूं ॥२॥ सब पापोंको नाश करनेवाली मुक्ति और भुक्तिको देनेवाली आषाढके कृष्णपक्षमें 'योगिनी' नामकी एकादशी होती है ॥३॥ हे राजश्रेष्ठ ! यह एकादशी संसाररूपी समुद्रमें डूबनेवालोंको जहाजके समान और पापोंका नाश करनेवाली एवं सनातनी है ॥४॥ हे नराधिप ! तीनों जगतको सार रूपा प्राचीन एवं पापहारिणी, इस योगिनी एकादशी कथाका मैं तुम्हें वर्णन करताहूं ॥५॥

शिवपूजा करनेवाले अलका नगरीके स्वामी कुबेरके पास हेममाली नामका एक मालीका लडका था ॥६॥ उसकी विशालाक्षी नामकी सुन्दर स्त्री थी। वह कामदेवके वशीभूत होकर उसमें बडा स्नेह रखता था॥७॥नवह एकदिन मानस सरोवरसे पुष्प लाकर अपनी पत्नीके प्रेमसे फंसकर घरपर ही रहगया और अपने स्वामी कुबेरके स्थानपर न गया ॥८॥ हे राजन् ! कुबेर उस समय देवालयमें बैठकर शिवजीको पूजा करता था। मध्याह्नका समय हो गया था, पर पुष्प नहीं आये थे । इस कारण उनकी पूरी प्रतीक्षा थी ॥९॥ हेममाली जिसको कि, पुष्प लाने के लिए कहा गया था, घरपर अपनी स्त्रीसे भोग कर रहा था। तब यक्षराजने कालाति-क्रम होनेके कारण कुपित होकर यह कहा ॥१०॥ कि, हे यक्षो ! वह दुष्ट हेममाली आज क्यों नहीं आया ! जाकर इसका निश्चय करो, यह एकही बार नहीं कई बार कहा ॥११॥ यक्षोंने जवाब दिया कि, हे राजन् ! वह तो अपने घर अपनी कान्ताके संग स्वेच्छापूर्वक रमणकर रहा है ! उसने यह सुन कुपित होकर ॥१२॥ उस फूल लानेवाले मालीके लडके हेममालीको तुरतही बुलाया और वहभी देरी हो जानेसे डरके मारे कांपने लगा ॥१३॥ उसने आकर कुवेरसे प्रणाम किया और सामने बैठ गया । उसको देखकर कुबेरके क्रोधसे लाल नेत्र होगये ॥१४॥ क्रोधावेशमें आने के कारण कांपने लगे और यह वचन कहे कि, हे दुष्ट ! बदमाश तूने देवापमान किया है ॥१५॥ इसलिये जा, तुम्हें श्वेत कुष्ठ होकर सदा स्त्रीका वियोग होगा तू इस स्थानसे गिरकर अधमस्थानम चला जा ॥१६॥ ऐसा कहते ही वह उस स्थानसे गिरगया । बडा दुःखी हुआ और कुष्ठसे सारा शरीर बिगड़ गया ॥१७॥ भयंकर वनमें न उसे पानी मिलता था और न भोजन । दिनमें न सुख मिलता था और न रातमें नींदही प्राप्त होती थी ॥१८॥ छाया और धूपमें अत्यन्त कष्ट पानेपरभी शिवपूजाके प्रभावसे उसे अपनी पूर्वस्मृति लुप्त न हुयी ॥१९॥ पापाभिभूत होकर भी उसे अपने पूर्वकर्मका स्मरण था । इसलिये भ्रमण करते करते वह पर्वतराज हिमालयमें जा पहुंचा ॥२०॥ वहां उसने तपोनिधि मुनिराज मार्कण्डेयजीको देखा ! जिसकी कि, आयु हे राजन् ! ब्रह्माके सात दिन पर्यन्त है ॥२१॥ वह उस मुनिराजके उस आश्रमपर गया जो ब्रह्मसभाके समान था। उस पापीने दूरसेही उनके चरणोंमें प्रणाम किया ॥२२॥ तब महाराज मार्कण्डेयजीने उसे दूरसे ही देखकर परोपकार करनेको इच्छासे बुलाकर यह कहा ॥२३॥ कि, क्यों भाई ! तुम्हें यह कुष्ठ क्यों है और किस लिए तू अत्यन्त निन्दनीय हुआ है ? इसप्रकार उनके वचन सुनकर उसने उत्तर दिया ॥२४॥ कि, महाराज ! मेरा नाम हेममाली है, मैं कुबेरका नौकर हूं। हे मुने! मैं नित्य मानसरोवरसे पुष्प लाकर ॥२५॥ शिवजी की पूजाके समय कुबेरको अर्पण किया करता था। लेकिन एक दिन मैंने देर कर दी।॥२६॥ कामाकुल होकर स्त्रीसङ्ग करता रहा, उसका सुख लेता रह गया । तब स्वामीने कुपित होकर, हे मुने ! मुझे शाप दे दिया है ॥२७॥ अब इसी कारण मैं कुष्ठसे कष्ट पारहा हूं और स्त्रीसे भी वियुक्त हूं। अब आपके निकट किसी शुभकर्मसे यहां आपके समीप आ उपस्थित हुआ हूं ॥२८॥ सज्जनोंका स्वभावही परोपकार करनेका होता है, इसलिए आप मुझे ऐसा जान कर इस पापका प्रायश्चित बतलाइये ॥२९।। मार्कडेयजी बोले कि, तुमने सत्य कहा, मिथ्याभाषण नहीं किया है । इसलिये मैं तुमें शुभके देनेवाले एक सुंदर व्रतका उपदेश करूंगा ॥३०॥ 

आषाढ कृष्णपक्षमें तू योगिनीका व्रतकर । इस व्रतके पुण्यसे तुम कुष्ठसे मुक्त हो जाओगे इसमें सन्देह मत करना ॥३१॥ मुनिके इन वचनोंको सुन उसने पृथिवीपर दण्डवत् प्रणाम किया मुनिने उसे उठाया तब उसे बडा हर्ष हुआ ॥३२॥ मार्कण्डेयजी के उपदेशसे उसने यह उत्तम व्रत किया और उस व्रतके प्रभावसे उसको दिव्यरूप प्राप्त होगया ॥३३॥ स्त्रीका संयोग उत्तम सुख प्राप्त हुआ, जिससे वह सुखी होगया । हे राजन् ! इस प्रकार योगिनीका उत्तम व्रत वर्णन किया ॥३४॥ अस्सी हजार ब्राह्मणोंको भोजन करानेसे जो फल मिलता है वही फल इस योगिनीके व्रतसे मिलता है॥३५॥ बडे बडे पापोंका नाश करनेवाली और बडा पुण्य फल देनेवाली है । हे राजन् ! इस प्रकार आपको यह आषाढ- कृष्ण एकादशी का वर्णन कर दिया है ॥३६॥
 इति श्रीब्रह्मवैवर्तपुराणको कही हुई आषाढकृष्ण योगिनी-नामक एकादशीका माहात्म्य पूरा हुआ।

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