सीखा के बिना किया गया कोई भी कर्म सफल नहीं होता
विना शिखा के किये गये सभी सदकृत्य व्यर्थ हो जाते है।
इसलिये शिखा अति महत्वपूर्ण है।
----आचार्य ।।
#शिखां_छिन्दन्ति_यो_मोहादज्ञानतो_ज्ञानतोपि_वा।
#तप्तकृच्छ्रेण_शुद्ध्यंति_त्रयोवर्णा_द्विजातयः।।
----यदि मोह वस,मदांध होकर या अज्ञानता में शिखा कटवा दी गयी है तो इन तीन वर्णो को(ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य)तप्तकृच्छ्र चन्द्रायण ब्रत अवश्य करना चाहिए ।
तभी उनकी एव उनके द्वारा किये गये सद्कार्यों की शुद्धि होती है।।
#अथ_चेत्प्रामादान्निशिखं_वपनं_स्यात्_तत्र_कौशीं_शिखां_ब्रह्मग्रंथिसमन्वितां_दक्षिणकर्णोपरि_#
#आशिखावन्धादव_तिष्ठेत्।
यदि कोई मनुष्य प्रमादवश शिखा कटवा ले तो वह कुशा की शिखा बनाकर दाहिने कान पर तब तक रखे ,जब तक बांधने योग्य शिखा न बढ़ जाये।।
#सदोपवीती_चैव_स्यात्_सदाबद्ध_शिखो_द्विजः !
#अन्यथा_यत्कृतं_कर्म_तद्_भवत्ययथाकृतम्!!
#सदोपवीतिना_भाव्यं_सदा_वद्धशिखेन_च !
#विशिखो_व्युपवीतश्च_यत्करोति_न_तत्कृतम्!!
#विना_यज्ञोपवितेन_विना_बद्ध_शिखेन_च!
#विशेषोद्युपवितेन_यत्कृतं_नैव_तदकृतम्।।
द्विज को सदा यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए और शिखा बांधकर रखना चाहिए !
यज्ञोपवीत और शिखा के विना जो भी यज्ञादि कर्म किये जाते है ,वे सब निष्फल हो जाते ।
#सप्तत्युर्ध्वं_तु_चेततस्या:#पूर्वत: पृष्ठतोपि_वा !
#पार्श्वत:#परितोवापि_समुद्_भूतैश्च_रोमभि:!!
#शिखा_कार्या_प्रयत्नेन_न_चेन्नैवोपपद्यते !
#तत्स्थाने_सर्वशून्ये_तु_परितो_वापि_किं_पुनः!!
#ब्राह्मण्यसूचनायैवं_तानि_लोमानि_धारयेत्!
#अन्यथा_न_भवेदेव_तथा_तस्मात्समैचरेत्!!
यदि बृद्धावस्था में बाल झड़ जाने के कारण शिखा न रहे तो यथा सम्भव चारो ओर के बचे हुए बालों से शिखा बनाकर नित्यकर्म करता रहे ।
यदि बाल विल्कुल न हो तो कुश आदि की शिखा रखकर नित्यकर्म करे ,पर शिखा शून्य कभी न रहे।।
#प्रश्न_नही_स्वाध्याय_करे।।
अपने आचार्य से इस निर्माण की विधि अवश्य जानिए ।
कुश के निर्माण की शास्त्रीय विधि का ज्ञान भी आवश्यक
है।
#शिखा_का_महत्त्व
वैदिक धर्म में सिर पर शिखा(चोटी) धारण करने का असाधारण महत्व है।प्रत्येक बालक के जन्म के बाद मुण्डन संस्कार के पश्चात सिर के उस विषेश भाग पर गौ के नवजात बच्चे के खुर के प्रमाण आकार की चोटी रखने का विधान है।
यह वही स्थान होता है जहाँ सुषुम्ना नाड़ी पीठ के मध्य भाग में से होती हुई ऊपर की और आकर समाप्त होती है और उसमें से सिर के विभिन्न अंगों के वात संस्थान का संचालन करने को अनेक सूक्ष्म वात नाड़ियों का प्रारम्भ होता है।
सुषुम्ना नाड़ी सम्पूर्ण शरीर के वात संस्थान का संचालन करती है।
यदि इसमें से निकलने वाली कोई नाड़ी किसी भी कारण से सुस्त पड़ जाती है तो उस अंग को फालिज मारना कहते हैं।समस्त शरीर को शक्ति केवल सुषुम्ना नाड़ी से ही मिलती है।
सिर के जिस भाग पर चोटी रखी जाती है उसी स्थान पर अस्थि के नीचे लघुमस्तिष्क का स्थान होता है जो गौ के नवजात बच्चों के खुर के ही आकार का होता है और शिखा भी उतनी ही बड़ी उसके ऊपर रखी जाती है।
बाल गर्मी पैदा करते हैं।बालों में विद्युत का संग्रह रहता है जो सुषुम्ना नाड़ी को उतनी ऊष्मा हर समय प्रदान करते रहते हैं जितनी की उसे समस्त शरीर के वात-नाड़ी संस्थान को जागृत व उत्तेजित करने के लिए आवश्यकता होती है।
इससे मानव का वात नाड़ी संस्थान आवश्यकतानुसार जागृत रहते हुए समस्त शरीर को बल देता है।किसी भी अंग में फालिज पड़ने का भय नहीं रहता है और साथ ही लघुमस्तिष्क विकसित होता रहता है,जिसमें जन्म जन्मान्तरों के एवं वर्तमान जन्म के संस्कार संग्रहीत रहते हैं।
सुषुम्ना का जो भाग लघुमस्तिष्क को संचालित करता है,वह उसे शिखा द्वारा प्राप्त ऊष्मा से चैतन्य बनाता है,इससे स्मरण शक्ति भी विकसित होती है।
वेद में शिखा रखने का विधान कई स्थानों पर मिलता है,देखिये―
*शिखिभ्यः स्वाहा (अथर्ववेद १९-२२-१५)*
*अर्थ-*चोटी धारण करने वालों का कल्याण हो।
*यशसेश्रियै शिखा।-(यजु० १९-९२)*
*अर्थ-*यश और लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए सिर पर शिखा धारण करें।
*याज्ञिकैंगौर्दांणि मार्जनि गोक्षुर्वच्च शिखा।-(यजुर्वेदीय कठशाखा)*
*अर्थात्* सिर पर यज्ञाधिकार प्राप्त को गौ के खुर के बराबर(गाय के जन्में बछड़े के खुर के बराबर) स्थान में चोटी रखनी चाहिये।
*केशानां शेष करणं शिखास्थापनं।*
*केश शेष करणम् इति मंगल हेतोः ।।-(पारस्कर गृह्यसूत्र)*
*अर्थ-*मुण्ड़़न संस्कार के बाद जब भी सिर के बाल कटावें,तो चोटी के बालों को छोड़कर शेष बाल कटावें,यह मंगलकारक होता है।
और देखिये:-
*सदोपवीतिनां भाव्यं सदा वद्धशिखेन च ।*
*विशिखो व्युपवीतश्च यत् करोति न तत्कृतम् ।। ४ ।।*
-(कात्यायन स्मृति)
*अर्थ-*यज्ञोपवीत सदा धारण करें तथा सदा चोटी में गाँठ लगाकर रखें।बिना शिखा व यज्ञोपवीत के कोई यज्ञ सन्ध्योपासनादि कृत्य न करें,अन्यथा वह न करने के ही समान है।
बड़ी शिखा धारण करने से बल,आयु,तेज,बुद्धि,लक्ष्मी व स्मृति बढ़ती है।
एक अंग्रेज डाक्टर विक्टर ई क्रोमर ने अपनी पुस्तक 'विरिलकल्पक' में लिखा है,जिसका भावार्थ निम्न है:-
ध्यान करते समय ओज शक्ति प्रकट होती है।किसी वस्तु पर चिन्तन शक्ति एकाग्र करने से ओज शक्ति उसकी ओर दौडने लगती है।
यदि ईश्वर पर ध्यान एकाग्र किया जावे,तो मस्तिष्क के ऊपर शिखा के चोटी के मार्ग से ओज शक्ति प्रवेश करती है।
परमात्मा की शक्ति इसी मार्ग से मनुष्य के भीतर आया करती है।सूक्ष्म दृष्टि सम्पन्न योगी इन दोनों शक्तियों के असाधारण सुंदर रंग भी देख लेते हैं।
जिस स्थान पर शिखा होती है,उसके नीचे एक ग्रन्थि होती है जिसे पिट्टयूरी ग्रन्थि कहते हैं।इससे एक रस बनता है जो संपूर्ण शरीर व बुद्धि को तेज सम्पन्न तथा स्वस्थ एवं चिरंजीवी बनाता है।इसकी कार्य शक्ति चोटी के बड़े बालों व सूर्य की प्रतिक्रिया पर निर्भर करती है।
_डाक्टर क्लार्क ने लिखा है:-_
मुझे विश्वास हो गया है कि आर्यों का हर एक नियम विज्ञान से भरा हुआ है।चोटी रखना हिन्दुओं का धार्मिक चिन्ह ही नहीं बल्कि सुषुम्ना की रक्षा के लिए ऋषियों की खोज का एक विलक्षण चमत्कार है।
शिखा गुच्छेदार रखने व उसमें गाँठ बांधने के कारण प्राचीन आर्यों में तेज,मेधा बुद्धि,दीर्घायु तथा बल की विलक्षणता मिलती थी।
जब से अंग्रेजी कुशिक्षा के प्रभाव में भारतवासियों ने शिखा व सूत्र का त्याग कर दिया है उनमें यह शीर्षस्थ गुणों का निरन्तर ह्रास होता जा रहा है।
पागलपन,अन्धत्व तथा मस्तिष्क के रोग शिखाधारियों को नहीं होते थे,वे अब शिखाहीनों मैं बहुत देखे जा सकते हैं।
जिस शिखा व जनेऊ की रक्षा के लिए लाखों भारतीयों ने विधर्मियों के साथ युद्धों में प्राण देना उचित समझा,अपने प्राणों के बलिदान दिये।
महाराणा प्रताप,वीर शिवाजी,गुरु गोविन्दसिंह,वीर हकीकत राय आदि हजारों भारतीयों ने चोटी और जनेऊ की रक्षार्थ आत्म बलिदान देकर भी इनकी रक्षा मुस्लिम शासन के कठिन काल में की,उसी चोटी और जनेऊ को आज का मनुष्य बाबू टाईप का अंग्रेजीयत का गुलाम अपने सांस्कृतिक चिन्ह(चोटी और जनेऊ) को त्यागता चला जा रहा है,यह कितने दुःख की बात है।
उसे इस परमोपयोगी धार्मिक एवं स्वास्थयवर्धक प्रतीकों को धारण करने में ग्लानि व हीनता लगती है परन्तु अंग्रेजी गुलामी की निशानी ईसाईयत की वेषभूषा पतलून पहनकर खड़े होकर मूतने में उसे कोई शर्म महसूस नहीं होती है जो कि स्वास्थय की दृष्टि से भी हानिकारक है और भारतीय दृष्टि से घोर असभ्यता की निशानी है।
स्त्रियों के सिर पर लम्बे बाल होना उनके शरीर की बनावट तथा उनके शरीरगत विद्युत के अनुकूल रहने से उनको अलग से चोटी नहीं रखनी चाहिये।स्त्रियों को बाल नहीं कटाने चाहियें।
💐💐***।। शिखा स्थापना ।।***💐💐
*💐--गृह्यसूत्रों में शिखा स्थापना के लिए ही चूड़ाकरण संस्कार का प्रतिपादन है।शास्त्रकारों ने शिखा(चोटी)को
सनातन धर्म का शीर्ष प्रतीक माना है। शिखावत्वं नाम हिन्दुत्वम्-- शिखा हिन्दुत्व का चिह्न है।यह चारों वर्णों के लिये तुल्य स्वाभिमान व्यक्त करता है।
शिखा को चूड़ा कहते हैं।यह मूर्ध्नि पर स्थित होती है। शिखा को चामुण्डा देवी का निवास स्थानभी कहते हैं-तिष्ठ देवि! शिखा मध्ये चामुण्डे! चापराजिते !!
इसकी रक्षा का भार उद्योतिनी देवी के ऊपर है--शिखामुद्योतिनि रक्षेत्।पशुओं में ककुद (डील)उनका श्रेष्ठ अंगहोताहै।पक्षीमें मयूरके शीर्ष(सिर)परतीन कलंगीवाली शिखा होती है।इसलिए मयूर को शिखी कहते हैं।नागों के मस्तक पर शिखा रूप में मणि होती है।यह चमकती रहती है।अतः वेदांग में लिखा --यथा शिखा मयूराणाम्
नागानां मणयो यथा। विश्व में जो भी उच्चता का प्रतीक है वह शिखा है,चूड़ा है।शिखा से शिखर होता है।चूडान्त का अर्थ होता है शिखर पर स्थित। चंद्रचूड़ भगवान शिव हैं।उनके शिखर(भाल)पर द्वितीयाका चन्द्रमा विराजमान है।
जहाँ भी शब्दकोश में शिखा या चूडा है वह उच्चता का बोधकहै।उसी उच्चताका प्रतीक शिखा (चोटी)है।यहहिन्दू धर्म के लोगों को संकल्प सिद्धि केलिए प्रेरित करती है। अनन्त आकाश से झरने वाली ऊर्जा को यह अपने भीतर समाहितकरती है।ध्यानस्थ होनेपर चेतनाकेऊर्ध्वआरोहण में सहयोग करती है।
चूड़ाकरण संस्कार में पहली बार बालक के सिर पर
शिखा स्थापित की जाती है।तीन मन्त्र बोलते हुए दाहिनी ओर के बालों को छीलते हैं।फिर कंघी से बालों को सीधा करते हैं।फिर पीछे के बालों को मन्त्र बोलते हुए छीलते हैं।अंत में वाम भाग के बालों को छीलते हैं।इसी क्रम में तीन शिराओं वाली कंघी का वर्णन आता है जो शाही के सफेद कांटे से बनी होती थी।केवल बाल छील देना उद्देश्य होता तो कंघी की पूजा क्यों होती,केवल ताम्र छुरे से काम चल जाता।इन छीले बालों को गोबर पर रख कर गाड़ा जाता था।शिखा रखना सभी सनातनी हिंदुओं के लिए अनिवार्य कर्तव्य है।
सिर पर पाँच शिखा रखने की भी परम्परा थी।कम्बुज वसिष्ठ गोत्रीय दक्षिण भाग में शिखा रखते थे।अत्रि और कश्यप गोत्र वाले दक्षिण वाम दोनों भागों में शिखा रखते थे।अंगिरा गोत्र वाले पांच शिखा रखते थे तथा वाजसनेयी
शाखावाले एक शिखा रखतेथे।कुछ भृगु वाले मुंडित होते थे।इससे सिद्ध होता हैकि मध्यमें मुख्यशिखा की स्थापना
के लिए ही चूडाकरण किया जाता था और पहली ही बार में शिखा की स्थापना कर दी जाती थी।इसके बावजूद भी
यदि कोई मुंडन (चूडा) में पूरा मुंडन करा देता है तो वह भृगुओं वाली परम्परा में ही आयेगा और आगे उसे बिना संस्कार और मन्त्र के ही स्वतः शिखा रखनी पड़ेगी।अन्य मङ्गल विधान भी थे जो आदृत नहीं थे पर कुलपरंपरा में होने से शास्त्र द्वारा निंदित भी नहीं थे।
अनेक ग्रन्थों को भाष्य सहित छान कर इसे दिया है।यदि अन्य सूचनाएं उपलब्ध होंगीं तो वे भी आदृत की जाएंगी।
✡️ ॐ नमो नारायण ✡️
✍️ *शास्त्री जी भावनगर* ✡️
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