शिव गोरक्ष

।!! ॐशिवगोरक्षॐ !!
               !! शिवालय का तत्त्व रहस्य !!
■ प्रायः प्रत्येक शिवालय में नन्दी, कूर्म, गणेश, हनुमान, जलधारा, नाग जैसे प्रतीक होते है, ये रहस्यमय है! देव -देवियों की आकृतियों में, उसके आसन -वाहन -प्रतीक -लक्षणों मे सूक्ष्म भाव एवं गूढ़ ज्ञानमय सांकेतिक सूत्र संनिहित रहते हैं! शिवालय के प्रत्येक मंदिर में नन्दी के दर्शन सर्वप्रथम होते है! यह शिव का वाहन है! यह सामान्य बैल नहीं है! यह ब्रह्मचर्य का प्रतीक है!  शिव का वाहन जैसे नन्दी है वैसे ही हमारे आत्मा का वाहन शरीर --काया है! अतः शिव को आत्मा का एवं नन्दी को शरीर का समझा जा सकता है! जैसे नन्दी की दृष्टि सदाशिव की ओर ही है, वैसे ही हमारा शरीर आत्माभिमुख बने, शरीर का लक्ष्य आत्मा बने, यह संकेत समझना चाहिये!
शिव का अर्थ है कल्याण! सभी के कल्याण का भाव आत्मसात् करें, सभी के मंगल की कामना करे तो जीव शिवमय बन जाता है!  अपने आत्मा में एसे शिवतत्त्व को प्रकट करने की साधना को ही शिव दर्शन कह सकते है और इसके लिये सर्वप्रथम आत्मा के वाहन शरीर को उपयुक्त बनाना होगा! शरीर नन्दी की तरह आत्माभिमुख बनें , शिवभाव से ओतप्रोत बने!  इसके लिये तप एवं ब्रह्मचर्य की साधना करे, स्थिर एवं दृढ़ रहे, यही महत्वपूर्ण शिक्षा इस नन्दी के माध्यम से दी गई है!
■ नन्दी के बाद कछुआ आता है, नन्दी हमारे स्थूल शरीर के लिये प्रेरक मार्गदर्शन करता है तो कछुआ सूक्ष्म शरीर अर्थात् मन का मार्गदर्शन करता है! हमारा मन कछुए जैसा कवचथारी सुदृढ़ बनना चाहिये! जैसे कच्छप शिव की ओर गतिशील है, वैसे हमारा मन भी शिवमय बने, कल्याण का ही चिन्तन करे, आत्मा के श्रेय हेतु यत्नशील रहे एवं संयमी तथा स्थितप्रज्ञ रहै!
■ नन्दी एवं कच्छप दोनों शिव की ओर बढ़ रहे है, अर्थात  शारिरिक कर्म एवं मानसिक चिन्तन दोनों जब आत्मा की ओर बढ़ रहे है, तब दोनों की शिवरूप आत्मा को पाने की योग्यता है या नहीं, इसकी कसौटी करने के लिये शिव मंदिर के द्वार पर दो द्वारपाल खङे है --गणेश और हनुमान् ! गणेश एवं हनुमान् के दिव्य आदर्श यदि जीवन मे नहीं आये तो शिव का या आत्मा का साक्षात्कार कैसे हो सकेगा? गणेश व हनुमान की परिक्षाओं में उत्तीर्ण होने से साधक को शिवरूप आत्मा की प्राप्ति हो सकती है !किंतु इतनी महान् विजय जिसे प्राप्त होती है, तब उसमें अहंकार आ सकता है!  इसी बात का स्मरण देने के लिये मानो शिवालय का प्रवेश द्वार सोपान -भूमी से कुछ ऊँचा ही रखा जाता है!  द्वार भी कुछ छोटा ही रहता है! अतः प्रकोष्ठ को पार करके निज मंदिर के ऊँचे सोपान पर चरण रखते समय एवं अन्तिम शिवद्वार में प्रवेश करते हुए अत्यंत विनम्रता, सावधानी बरतनी पङती है, सिर भी झूकना पङता है! साधक के अहंकार तिमिर जब नष्ट हो जाता है, तब भीतर-बाहर सर्वत्र शिवत्त्व के दर्शन होने लगते है! सभी कुछ मंगलमय लगने लगता है! आत्मज्ञान के सदृश पवित्र एवं प्रकाशमय और क्या हो सकता है ?
भीतर जब प्रवेश किया जाय, तब कर्ममय स्थूल जगत् तो बाहर ही छूट जाता है! निज में जो कारण जगत् की --आत्मस्वरूप की प्रतीति होती है वह अवर्णनीय है, शिवत्व -भाव में ओतप्रोत कर देनेवाली है!
■ शिवालय के निज मंदिर मे जो शिवलिंग है, उसे आत्म -लिंग ,ब्रह्मलिंग कहते है!  यहाँ विश्वकल्याणनिमग्न ब्रह्माकार -विश्वाकार परम आत्मा ही स्थित है! हिमालय सा शान्त महान, श्मशान -सा सुनसान शिवरूप आत्मा ही भयंकर शत्रुओं के बीच रह सकता है! कालरूप सर्प को गले लगा सकता है! मृत्यु को मित्र बना सकता है! कालातीत महाकाल कहला सकता है! ज्ञान -वैराग्य को धारण कर सकता है!
■ भगवान् शिव द्वारा धारण किये जाने वाले कपाल, कमण्डल आदि पदार्थ संतोषी, तपस्वी, अपरिग्रही जीवन साधना के प्रतीक है! भस्म -चिताभस्मालेप ज्ञान -वैराग्य और विनाशशील विश्व में अविनाशी के वरण के सूत्र -संकेत है !डमरू -निनाद आत्मानन्द -निजानन्द की आन्दानुभूतिका प्रतीक है!  काला नाग कलातीत चिर-समाधि-भाव का प्रतीक है!  त्रिदल -विल्वपत्र, तीन नेत्र, त्रिपुण्ड, त्रिशूल आदि सत्त्वगुण -रजोगुण -तमोगुण इन तीनों को सम करने का संकेत देते है! त्रिकाय, त्रिलोक और त्रिकाल से पर होने का निर्देश देते है! भीतरी भावावेशों को शान्त करने के लिये साधक भ्रकुटी में ध्यान केन्द्रित किया करते है! इसी स्थान में त्रिकुटी, सहस्त्रचक्र, सहस्त्रदल कमल, अमृतकुम्भ, ब्रह्मकलश, आज्ञाचक्र, शिव-पार्वती -योग -जैसे वर्णनोंद्वारा सिद्धि सामर्थ्य की प्राप्ति की क्षमता होने की चर्चा योगशास्त्रों में की गई है! विवेक -बुद्धिरूपी तृतीय नेत्र भविष्यदर्शन, अतीन्द्रिय शक्ति एवं कामदहन जैसी क्षमताओं का केंद्र माना गया है! शिव के रूद्र तो भीतरी आवेश-आवेग ही है, इनको शम करना, यही शंकर का काम है! त्रिदेव भी इन्हीं सभी त्रिपरिणाम -त्रयीयुक्त प्रतीकों से सूचित है!  अ-उ-म् --इन तीनों अक्षरों के समन्वित एकाक्षर "ॐ" में भी यही भाव समायोजित है!  विश्व कल्याण हेतु हलाहल को भी पी लेना एवं विश्व के तमाम कोलाहल से परे रहकर मृदङ्ग, शङ्ग,घंटा डमरू, शंख के निनाद में मग्न रहना अर्थात् आत्मस्थ रहना, ब्रह्म में रत रहना यही शिवसंदेश कई छोटे-मोटे प्रतीकों द्वारा भी घोषित हुआ है! शंख, डमरू आदि योग साधना में भीतरी अनाहत नाद के भी संकेत है, जिसे "नादब्रह्म" कहते है! शिव पर अविरत टपकने वाली जलधारा जटा में स्थित गंगा का प्रतीक है, वह ज्ञान गंगा है!  स्वर्ग की ॠतम्भरा प्रज्ञा -दिव्य बुद्धि गायत्री अथवा त्रिकाल संध्या, जिसे ब्रह्मा विष्णू महेश भी उपासते रहते है, यही ज्ञान गंगा है!  शिवलिंग यदि शिवमय आत्मा है, तो उसके साथ छाया की तरह अवस्थित पार्वती उस आत्मा की शक्ति है, इसमें संकेत यह है कि ऐसे कल्याणमय, शिवमय आत्मा की आत्म शक्ति भी छाया की तरह उसका अनुसरण करती है, प्रेरणा सहयोगिनी बनती है!
■ शिवालय की जलधारा उत्तर की ओर बहती है!  उत्तर में स्थित ध्रुव तारक उच्च स्थिर लक्ष्य का प्रतीक है!  शिवमय -कल्याणकामी आत्मा का ज्ञान -प्रवाह, चिन्तन प्रवाह सदैव उच्च स्थिर लक्ष्य की ओर ही गति करता है! उनका लक्ष्य ध्रुव अविचल रहता है!  कई पुरातन शिवमंदिरों में उत्तरी दिवार में गंगाजी की प्रतिमा भी रहती है! उसे स्वर्गीय दिव्य बुद्धि ॠतम्भरा प्रज्ञा समझनी चाहिये, जो ब्रह्माण्ड से अवतरित चेतना है!  शिवपर अविरत टपकने वाली जलधारा की तरह ही साधक पर भी ब्रह्माण्डीय चेतना की अमृतधारा --प्रभुकृपा अविरत बरसती रहती है!  एसा विश्वास करना चाहिये!
■ इस प्रकार शिवालय स्थित इन प्रतीकों--चिह्नों के तत्त्व रहस्यों का चिन्तन कर भावना से ओतप्रोत बने व्यक्तित्व को शिवमय बनाया जा सके, तो हमारे दर्शन -पूजन -उपासना आदि की यथार्थ सार्थकता है! ॐ!
!! शिवशक्ति सर्व भक्तो की मनोकामनाये परिपूर्ण करे !!
                        ॐशिवगोरक्षॐ

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