ऊखल बंधन लीला
Shashtrijibvnbhudev38!! ऊखल बंधन लीला ... अध्यात्मिक चिंतन !!
"एकदा गृहदासीषु यशोदा नंदगेहिनी .
कर्मान्तरनियुक्तासु निर्ममंथ स्वयं दधि ..
*एक बार कार्तिक मास का समय था, नंदरानी यशोदा जी ने सोचा मेरे लाल इतने बड़े हो गये मैने आज तक अपने हाथों से माखन निकालकर उन्हें नहीं खिलाया ऐसा सोचकर नंदरानी यशोदा जी ने घर की दासियो को तो दूसरे कामो में लगा दिया ओर स्वयं दही मथने लगी. भगवान ने जो-जो लीलाये अब तक की थी दधिमंथन के समय वे उन सबका स्मरण करती और गाती भी जाती थी .
आध्यात्मिक पक्ष -
यहाँ भक्त के स्वरुप का निरूपण है शरीर से दधिमंथन रूप सेवाकर्म हो रहा है, हृदय में स्मरण की धारा सतत प्रवाहित हो रही है, वाणी में बाल-चरित्र का संगीत, भक्त ‘तन, मन, वचन’ – सब अपने प्यारे की सेवा में संलग्न है.
वे अपने स्थूल कटिभाग में सूत से बाँधकर रेशमी लहँगा पहने हुए थी. नेति खीचते रहने से बाँहे कुछ थक गयी थी, हाथों के कंगन और कानो के कर्णफूल हिल रहे थे, मुँह पर पसीने की बूँदे झलक रही थी, चोटी में गुंथे हुए मालती के सुन्दर पुष्प गिरते जा रहे थे .
अध्यात्मिक पक्ष -
कमर में रेशमी लहँगा डोरी से कसकर बंधा हुआ है अर्थात जीवन में आलस्य, प्रमाद, असावधानी नहीं है सेवाकर्म में पूरी तत्परता है रेशमी लहँगा इसलिए पहने है कि किसी प्रकार की अपवित्रता रह गयी तो मेरे कन्हैया को कुछ हो जायेगा.कंगन और कुंडल नाच-नाचकर मैया को बधाई दे रहे है.कि वे आज उन हाथों में रहकर धन्य हो रहे है कि जो हाथ भगवान की सेवा लगे है.और कुंडल यशोदा मैया के मुख से लीला-गान सुनकर परमानन्द से हिलते हुए कानो की सफलता की सूचना दे रहे है .मुँह पर स्वेद और मालती के पुष्पो के नीचे गिरने का ध्यान माता को नहीं है.वह श्रंगार और शरीर भूल चुकी है.मालती के पुष्प स्वयं ही चोटियो से छूटकर चरणो मे गिर रहे है,कि ऐसी वात्सल्यमयी माँ के चरणों में ही रहना सौभाग्य है हम सिर पर रहने के अधिकारी नहीं.
उसी समय भगवान श्रीकृष्ण स्तन पीने के लिए दही मथती हुई अपनी माता के पास आये. उन्होंने अपनी माता के हृदय में प्रेम और आनंद को और भी बढाते हुए दही की मथानी पकड़ ली और उन्हें मथने से रोक दिया.श्रीकृष्ण माता यशोदा की गोद में चढ़ गये .वात्सल्य स्नेह की अधिकता से उनके स्तनों से दूध तो स्वयं झर रहा था वे उन्हें पिलाने लगी .और मंद-मंद मुस्कान से युक्त उनका मुख देखने लगी.इतने में ही दूसरी ओर अँगीठी पर रखे हुए दूध में उफन आया.उसे देखकर यशोदा जी उन्हें अतृप्त ही छोडकर जल्दी से दूध उतारने के लिए चली गयी .इससे श्रीकृष्ण को कुछ क्रोध आ गया .उनके लाल-लाल होठ फडकने लगे.उन्होंने पास में पड़े हुए लोढे से दही का मटका फोड़फाड डाला .
आध्यात्मिक पक्ष-
हृदय में लीला की सुख स्मृति हाथों से दधि मंथन और मुख से लीला गान – इस प्रकार मन, तन, वचन, तीनो का श्रीकृष्ण के साथ एकतान संयोग होते ही श्रीकृष्ण के जगकर ‘माँ-माँ’पुकारने लगे अब तक भगवान सोये हुए-से थे.माँ की स्नेह साधना ने उन्हें जगा दिया.वे निर्गुण से सगुण हुए,अचल से चल हुए,निष्काम से सकाम हुए,स्नेह के भूखे-प्यासे माँ के पास आये .सर्वत्र भगवान साधना की प्रेरणा देते है.अपनी ओर आकृष्ट करते है परन्तु मथानी पकड़कर मैया को रोक लिया ‘माँ!अब तेरी साधना पूर्ण हो गयी अब मै तेरी साधना का इससे अधिक भार नहीं सह सकता.यशोदा माता दूध के पास पहुँची,प्रेम का अद्भुत द्रृश्य !पुत्र को गोद से उतारकर उसके पेय की प्रति इतनी प्रीति क्यों ?यह सहस्त्रो छटी हुई गायों के दूध से पालित पद्मगंधा गाय का दूध फिर कहाँ मिलेगा ?वृन्दावन का दूध अप्राकृत, चिन्मय, प्रेमजगत का दूध माँ को आते देख शर्म से दब गया ‘अहो!आग में कूदने का संकल्प करके मैंने माँ के स्नेहानंद में कितना बड़ा विघ्न कर डाला ?और माँ अपना आनंद छोडकर मेरी रक्षा के लिए दौडी आ रही है मुझे धिक्कार है दूध का उफनना बंद हो गया .
यशोदा जी औट हुए दूध को उतारकर फिर मथने के घर में चली आयी वहाँ दीखते है तो दही का मटका टुकड़े-टुकड़े हो गया है वे समझ गयी कि यह सब मेरे लाला की करतूत है इधर-उधर ढूंढने पर पता चला कि श्रीकृष्ण एक उलटे ऊखल पर खड़े है ओर छीके पर का माखन ले-लेकर बंदरों को खूब लुटा रहे है.यह देखकर यशोदा रानी पीछे से धीरे-धीरे उनके पास जा पहुँची .जब श्रीकृष्ण ने देखा कि माँ हाथ में छड़ी लिए मेरी ही ओर आ रही है तब झट से ओखली पर से कूद पड़े और डरे हुए कि भांति भागे.बड़े-बड़े योगि तपस्या के द्वारा अपने मन को सूक्ष्म और शुद्ध बनाकर भी जिनमे प्रवेश नहीं कर पाते, पाने की बात तो दूर रही, उन्ही भगवान के पीछे-पीछे उन्हें पकड़ने के लिए यशोदाजी दौडी.
आध्यात्मिक पक्ष –
भीत होकर भागते हुए भगवान है अपूर्व झाँकी है ऐश्वर्य को तो मानो मैया के वात्सल्य प्रेम पर न्यौछावर करके ब्रज के बाहर ही फेक दिया है कियी असुर अस्त्र-शस्त्र लेकर आता तो सुदर्शन चक्र का स्मरण करते मैया की छड़ी का निवारण करने के लिए कोई भी नहीं . भगवान की यह भयभीत मूर्ति कितनी मधुर है .
जब इस प्रकार माता यशोदा श्रीकृष्ण के पीछे दौडने लगी तब कुछ ही देर में बड़े-बड़े नितंबो के कारण उनकी चाल धीमी पड़ गयी, वे ज्यो-ज्यो आगे बढ़ती पीछे-पीछे चोटी में गुंथे हुए फूल गिरते जाते .श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर वे उन्हें डराने-धमकाने लगी,उस समय श्रीकृष्ण की झाँकी बड़ी विलक्षण हो रही थी अपराध तो किया ही था,इसलिए रुलाई रोकने पर भी नहीं रुकती थी,हाथो से आँखे मल रहे थे इसलिए मुँह पर काजल की स्याही फ़ैल गयी थी.पिटने के भय से आँखे ऊपर की ओर उठ गयी थी .
अध्यात्मिक पक्ष-
विश्व के इतिहास में भगवान के सम्पूर्ण जीवन में पहली बार स्वयं विश्वेश्वर भगवान माँ के सामने अपराधी बनकर खड़े हुए है मानो अपराधी भी मै ही हूँ .ऊपर इसलिए देख रहे है, लोगो को भय होता है तो वे ऊपर मेरी सहायता मागने के लिए देखते है पर मै ही अपराधी हूँ तब मेरी सहायता कौन कर सकता है ?
जब यशोदा जी ने देखा लाला बहुत डर गये है तब उनके हृदय में वात्सल्य स्नेह उमड़ आया उन्होंने छड़ी फेक दी उन्होंने सोच पर इसे बांध देना चाहिए सच पूछो तो यशोदा मैया को अपने बालक के ‘ऐश्वर्य’ का पता ही नहीं था.
अध्यात्मिक पक्ष -
भगवान ‘ऐश्वर्य’ का अज्ञान दो प्रकार का होता है - एक तो 'साधारण प्राकृत जीवो' को, ओर दूसरा भगवान के ‘नित्यसिद्धा प्रेमी परिकर’ को.यशोदा मैया आदि भगवान की स्वरूपभूता चिन्मयी लीला के 'अप्राकृत नित्य सिद्ध परिकर'है .भगवान के प्रति 'वात्सल्य भाव'की गाढता के कारण ही उनका ऐश्वर्य ज्ञान अभिभूत हो जाता है अन्यथा उनमे अज्ञान की संभावना ही नही है.इनकी स्थिति तुरीयावस्था अथवा समधिका भी अतिक्रमण करके सहज प्रेम में रहती है वहाँ प्राकृत अज्ञान, मोह, रजोगुण और तमोगुण की बात ही क्या, प्राकृत सत्व की भी गति नहीं है .इसलिए इनका अज्ञान भी भगवान की लीला सिद्धि के लिए उनकी लीलाशक्ति ही चमत्कार विशेष है.तभी तक हदय में जडता रहती है जब तक चेतना का स्फुरण नहीं होता श्रीकृष्ण के हाथों में आ जाने पर यशोदा माता ने बांस की छड़ी फेक दी.मेरी तृप्ति का प्रयत्न छोडकर छोटी-मोटी वस्तु पर दृष्टि डालना केवल अर्थ-हानि का हेतु नहीं है,मुझे भी आँखों से ओझल कर देता है परन्तु सब कुछ छोडकर मेरे पीछे दौडना मेरी प्राप्ति का हेतु है.मुझे योगियों की भी बुद्धि नहीं पकड़ सकती परन्तु जो सब ओर से मुँह मोड़कर मेरी ओर दौडता है मै उसकी मुट्ठी में आ जाता हूँ.मैया के चरित्र से इस बात की शिक्षा मिलती है.
यशोदा माता ज्यो-ज्यो अपने स्नेह,ममता आदि गुणों से श्रीकृष्ण का पेट बंधने लगी त्यों-त्यों वह दो-दो अंगुल छोटी पड़ जाती तब उन्होंने दूसरी रस्सी से उसे जोड़ा पर छोटी पड़ती जाती है .
भगवान जिसको अपनी कृपा द्रष्टि से देख लेते है वाही सर्वदा के लिए बंधन मुक्त हो जाता है यशोदा माता अपने हाथो में जो रस्सी उठती उसी पर भगवान की दृष्टि पड़ जाती वह स्वयं मुक्त हो जाती फिर उसमे गाँठ कैसे लगती ?
वेदांत के सिद्धांतानुसार अध्यस्त में ही बंधन होता है, अधिष्ठान में नहीं भगवान श्रीकृष्ण का उदर अनन्तकोटि ब्रहाण्डो का अधिष्ठान है उसमे भला बंधन कैसे हो सकता है ?
उन्होंने विचार किया की जहाँ 'नाम' और 'रूप' होते है वाही बंधन भी होता है मुझ परमात्मा में बंधन की कल्पना कैसे ?जब की ये दोनों ही नहीं दो अंगुल की कमी का रहस्य है .
जब यशोदा माँ ने घर की सारी रस्सियाँ जोड़ डाली फिर भी ना बांध सकी तो भगवान ने देखा की मेरी माँ बहुत थक गयी है तब कृपा करके वे स्वयं ही अपनी माँ के बंधन में बंध गये. यशोदा जी ने कहा–चाहे गाँव की भार की रस्सी क्यों ना लग जाये पर मै तो इसे बाँधकर ही छोडूगी.जहाँ भगवान और भक्त हठ में विरोध होता है वहाँ भगवान अपना हठ छोड देते है भक्त के श्रम और भगवान की कृपा की कमी ही दो अंगुल की कमी है .
सार-
आत्माराम होने पर भी भूख लगना,पूर्णकाम होने पर भी अतृप्त रहना शुद्ध सत्वस्वरुप होने पर भी क्रोध करना,स्वराज्य लक्ष्मी से युक्त होने पर भी चोरी करना,महाकाल यम आदि को भय देने वाले होने पर भी डरना,और भागना,मन से भी तीव्र गतिवाले होने पर भी,माता के हाथो पकड़ा जाना,आनंमय होने पर भी दुखी होना, रोना, सर्वव्यापक होने पर भी बंध जाना,ये सब भगवान की स्वाभाविक भक्तवश्यता है.जो लोग भगवान को नहीं जानते है उनके लिए तो इसका कुछ उपयोग नहीं है परन्तु जो श्रीकृष्ण को भगवान के रूप में पहचानते है उनके लिए यह अत्यंत चमत्कारी वस्तु है. भगवान को माँ ने रस्सी से बंधा था, रस्सी को संस्कृत में 'दाम' कहते है और भगवान के उदर से बंधा इसलिए भगवान का एक नाम “दामोदर” पड़ गया और कार्तिक मास को “दामोदर " भी कहते हैं ।
"एकदा गृहदासीषु यशोदा नंदगेहिनी .
कर्मान्तरनियुक्तासु निर्ममंथ स्वयं दधि ..
*एक बार कार्तिक मास का समय था, नंदरानी यशोदा जी ने सोचा मेरे लाल इतने बड़े हो गये मैने आज तक अपने हाथों से माखन निकालकर उन्हें नहीं खिलाया ऐसा सोचकर नंदरानी यशोदा जी ने घर की दासियो को तो दूसरे कामो में लगा दिया ओर स्वयं दही मथने लगी. भगवान ने जो-जो लीलाये अब तक की थी दधिमंथन के समय वे उन सबका स्मरण करती और गाती भी जाती थी .
आध्यात्मिक पक्ष -
यहाँ भक्त के स्वरुप का निरूपण है शरीर से दधिमंथन रूप सेवाकर्म हो रहा है, हृदय में स्मरण की धारा सतत प्रवाहित हो रही है, वाणी में बाल-चरित्र का संगीत, भक्त ‘तन, मन, वचन’ – सब अपने प्यारे की सेवा में संलग्न है.
वे अपने स्थूल कटिभाग में सूत से बाँधकर रेशमी लहँगा पहने हुए थी. नेति खीचते रहने से बाँहे कुछ थक गयी थी, हाथों के कंगन और कानो के कर्णफूल हिल रहे थे, मुँह पर पसीने की बूँदे झलक रही थी, चोटी में गुंथे हुए मालती के सुन्दर पुष्प गिरते जा रहे थे .
अध्यात्मिक पक्ष -
कमर में रेशमी लहँगा डोरी से कसकर बंधा हुआ है अर्थात जीवन में आलस्य, प्रमाद, असावधानी नहीं है सेवाकर्म में पूरी तत्परता है रेशमी लहँगा इसलिए पहने है कि किसी प्रकार की अपवित्रता रह गयी तो मेरे कन्हैया को कुछ हो जायेगा.कंगन और कुंडल नाच-नाचकर मैया को बधाई दे रहे है.कि वे आज उन हाथों में रहकर धन्य हो रहे है कि जो हाथ भगवान की सेवा लगे है.और कुंडल यशोदा मैया के मुख से लीला-गान सुनकर परमानन्द से हिलते हुए कानो की सफलता की सूचना दे रहे है .मुँह पर स्वेद और मालती के पुष्पो के नीचे गिरने का ध्यान माता को नहीं है.वह श्रंगार और शरीर भूल चुकी है.मालती के पुष्प स्वयं ही चोटियो से छूटकर चरणो मे गिर रहे है,कि ऐसी वात्सल्यमयी माँ के चरणों में ही रहना सौभाग्य है हम सिर पर रहने के अधिकारी नहीं.
उसी समय भगवान श्रीकृष्ण स्तन पीने के लिए दही मथती हुई अपनी माता के पास आये. उन्होंने अपनी माता के हृदय में प्रेम और आनंद को और भी बढाते हुए दही की मथानी पकड़ ली और उन्हें मथने से रोक दिया.श्रीकृष्ण माता यशोदा की गोद में चढ़ गये .वात्सल्य स्नेह की अधिकता से उनके स्तनों से दूध तो स्वयं झर रहा था वे उन्हें पिलाने लगी .और मंद-मंद मुस्कान से युक्त उनका मुख देखने लगी.इतने में ही दूसरी ओर अँगीठी पर रखे हुए दूध में उफन आया.उसे देखकर यशोदा जी उन्हें अतृप्त ही छोडकर जल्दी से दूध उतारने के लिए चली गयी .इससे श्रीकृष्ण को कुछ क्रोध आ गया .उनके लाल-लाल होठ फडकने लगे.उन्होंने पास में पड़े हुए लोढे से दही का मटका फोड़फाड डाला .
आध्यात्मिक पक्ष-
हृदय में लीला की सुख स्मृति हाथों से दधि मंथन और मुख से लीला गान – इस प्रकार मन, तन, वचन, तीनो का श्रीकृष्ण के साथ एकतान संयोग होते ही श्रीकृष्ण के जगकर ‘माँ-माँ’पुकारने लगे अब तक भगवान सोये हुए-से थे.माँ की स्नेह साधना ने उन्हें जगा दिया.वे निर्गुण से सगुण हुए,अचल से चल हुए,निष्काम से सकाम हुए,स्नेह के भूखे-प्यासे माँ के पास आये .सर्वत्र भगवान साधना की प्रेरणा देते है.अपनी ओर आकृष्ट करते है परन्तु मथानी पकड़कर मैया को रोक लिया ‘माँ!अब तेरी साधना पूर्ण हो गयी अब मै तेरी साधना का इससे अधिक भार नहीं सह सकता.यशोदा माता दूध के पास पहुँची,प्रेम का अद्भुत द्रृश्य !पुत्र को गोद से उतारकर उसके पेय की प्रति इतनी प्रीति क्यों ?यह सहस्त्रो छटी हुई गायों के दूध से पालित पद्मगंधा गाय का दूध फिर कहाँ मिलेगा ?वृन्दावन का दूध अप्राकृत, चिन्मय, प्रेमजगत का दूध माँ को आते देख शर्म से दब गया ‘अहो!आग में कूदने का संकल्प करके मैंने माँ के स्नेहानंद में कितना बड़ा विघ्न कर डाला ?और माँ अपना आनंद छोडकर मेरी रक्षा के लिए दौडी आ रही है मुझे धिक्कार है दूध का उफनना बंद हो गया .
यशोदा जी औट हुए दूध को उतारकर फिर मथने के घर में चली आयी वहाँ दीखते है तो दही का मटका टुकड़े-टुकड़े हो गया है वे समझ गयी कि यह सब मेरे लाला की करतूत है इधर-उधर ढूंढने पर पता चला कि श्रीकृष्ण एक उलटे ऊखल पर खड़े है ओर छीके पर का माखन ले-लेकर बंदरों को खूब लुटा रहे है.यह देखकर यशोदा रानी पीछे से धीरे-धीरे उनके पास जा पहुँची .जब श्रीकृष्ण ने देखा कि माँ हाथ में छड़ी लिए मेरी ही ओर आ रही है तब झट से ओखली पर से कूद पड़े और डरे हुए कि भांति भागे.बड़े-बड़े योगि तपस्या के द्वारा अपने मन को सूक्ष्म और शुद्ध बनाकर भी जिनमे प्रवेश नहीं कर पाते, पाने की बात तो दूर रही, उन्ही भगवान के पीछे-पीछे उन्हें पकड़ने के लिए यशोदाजी दौडी.
आध्यात्मिक पक्ष –
भीत होकर भागते हुए भगवान है अपूर्व झाँकी है ऐश्वर्य को तो मानो मैया के वात्सल्य प्रेम पर न्यौछावर करके ब्रज के बाहर ही फेक दिया है कियी असुर अस्त्र-शस्त्र लेकर आता तो सुदर्शन चक्र का स्मरण करते मैया की छड़ी का निवारण करने के लिए कोई भी नहीं . भगवान की यह भयभीत मूर्ति कितनी मधुर है .
जब इस प्रकार माता यशोदा श्रीकृष्ण के पीछे दौडने लगी तब कुछ ही देर में बड़े-बड़े नितंबो के कारण उनकी चाल धीमी पड़ गयी, वे ज्यो-ज्यो आगे बढ़ती पीछे-पीछे चोटी में गुंथे हुए फूल गिरते जाते .श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर वे उन्हें डराने-धमकाने लगी,उस समय श्रीकृष्ण की झाँकी बड़ी विलक्षण हो रही थी अपराध तो किया ही था,इसलिए रुलाई रोकने पर भी नहीं रुकती थी,हाथो से आँखे मल रहे थे इसलिए मुँह पर काजल की स्याही फ़ैल गयी थी.पिटने के भय से आँखे ऊपर की ओर उठ गयी थी .
अध्यात्मिक पक्ष-
विश्व के इतिहास में भगवान के सम्पूर्ण जीवन में पहली बार स्वयं विश्वेश्वर भगवान माँ के सामने अपराधी बनकर खड़े हुए है मानो अपराधी भी मै ही हूँ .ऊपर इसलिए देख रहे है, लोगो को भय होता है तो वे ऊपर मेरी सहायता मागने के लिए देखते है पर मै ही अपराधी हूँ तब मेरी सहायता कौन कर सकता है ?
जब यशोदा जी ने देखा लाला बहुत डर गये है तब उनके हृदय में वात्सल्य स्नेह उमड़ आया उन्होंने छड़ी फेक दी उन्होंने सोच पर इसे बांध देना चाहिए सच पूछो तो यशोदा मैया को अपने बालक के ‘ऐश्वर्य’ का पता ही नहीं था.
अध्यात्मिक पक्ष -
भगवान ‘ऐश्वर्य’ का अज्ञान दो प्रकार का होता है - एक तो 'साधारण प्राकृत जीवो' को, ओर दूसरा भगवान के ‘नित्यसिद्धा प्रेमी परिकर’ को.यशोदा मैया आदि भगवान की स्वरूपभूता चिन्मयी लीला के 'अप्राकृत नित्य सिद्ध परिकर'है .भगवान के प्रति 'वात्सल्य भाव'की गाढता के कारण ही उनका ऐश्वर्य ज्ञान अभिभूत हो जाता है अन्यथा उनमे अज्ञान की संभावना ही नही है.इनकी स्थिति तुरीयावस्था अथवा समधिका भी अतिक्रमण करके सहज प्रेम में रहती है वहाँ प्राकृत अज्ञान, मोह, रजोगुण और तमोगुण की बात ही क्या, प्राकृत सत्व की भी गति नहीं है .इसलिए इनका अज्ञान भी भगवान की लीला सिद्धि के लिए उनकी लीलाशक्ति ही चमत्कार विशेष है.तभी तक हदय में जडता रहती है जब तक चेतना का स्फुरण नहीं होता श्रीकृष्ण के हाथों में आ जाने पर यशोदा माता ने बांस की छड़ी फेक दी.मेरी तृप्ति का प्रयत्न छोडकर छोटी-मोटी वस्तु पर दृष्टि डालना केवल अर्थ-हानि का हेतु नहीं है,मुझे भी आँखों से ओझल कर देता है परन्तु सब कुछ छोडकर मेरे पीछे दौडना मेरी प्राप्ति का हेतु है.मुझे योगियों की भी बुद्धि नहीं पकड़ सकती परन्तु जो सब ओर से मुँह मोड़कर मेरी ओर दौडता है मै उसकी मुट्ठी में आ जाता हूँ.मैया के चरित्र से इस बात की शिक्षा मिलती है.
यशोदा माता ज्यो-ज्यो अपने स्नेह,ममता आदि गुणों से श्रीकृष्ण का पेट बंधने लगी त्यों-त्यों वह दो-दो अंगुल छोटी पड़ जाती तब उन्होंने दूसरी रस्सी से उसे जोड़ा पर छोटी पड़ती जाती है .
भगवान जिसको अपनी कृपा द्रष्टि से देख लेते है वाही सर्वदा के लिए बंधन मुक्त हो जाता है यशोदा माता अपने हाथो में जो रस्सी उठती उसी पर भगवान की दृष्टि पड़ जाती वह स्वयं मुक्त हो जाती फिर उसमे गाँठ कैसे लगती ?
वेदांत के सिद्धांतानुसार अध्यस्त में ही बंधन होता है, अधिष्ठान में नहीं भगवान श्रीकृष्ण का उदर अनन्तकोटि ब्रहाण्डो का अधिष्ठान है उसमे भला बंधन कैसे हो सकता है ?
उन्होंने विचार किया की जहाँ 'नाम' और 'रूप' होते है वाही बंधन भी होता है मुझ परमात्मा में बंधन की कल्पना कैसे ?जब की ये दोनों ही नहीं दो अंगुल की कमी का रहस्य है .
जब यशोदा माँ ने घर की सारी रस्सियाँ जोड़ डाली फिर भी ना बांध सकी तो भगवान ने देखा की मेरी माँ बहुत थक गयी है तब कृपा करके वे स्वयं ही अपनी माँ के बंधन में बंध गये. यशोदा जी ने कहा–चाहे गाँव की भार की रस्सी क्यों ना लग जाये पर मै तो इसे बाँधकर ही छोडूगी.जहाँ भगवान और भक्त हठ में विरोध होता है वहाँ भगवान अपना हठ छोड देते है भक्त के श्रम और भगवान की कृपा की कमी ही दो अंगुल की कमी है .
सार-
आत्माराम होने पर भी भूख लगना,पूर्णकाम होने पर भी अतृप्त रहना शुद्ध सत्वस्वरुप होने पर भी क्रोध करना,स्वराज्य लक्ष्मी से युक्त होने पर भी चोरी करना,महाकाल यम आदि को भय देने वाले होने पर भी डरना,और भागना,मन से भी तीव्र गतिवाले होने पर भी,माता के हाथो पकड़ा जाना,आनंमय होने पर भी दुखी होना, रोना, सर्वव्यापक होने पर भी बंध जाना,ये सब भगवान की स्वाभाविक भक्तवश्यता है.जो लोग भगवान को नहीं जानते है उनके लिए तो इसका कुछ उपयोग नहीं है परन्तु जो श्रीकृष्ण को भगवान के रूप में पहचानते है उनके लिए यह अत्यंत चमत्कारी वस्तु है. भगवान को माँ ने रस्सी से बंधा था, रस्सी को संस्कृत में 'दाम' कहते है और भगवान के उदर से बंधा इसलिए भगवान का एक नाम “दामोदर” पड़ गया और कार्तिक मास को “दामोदर " भी कहते हैं ।
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