पुरुष सूक्त*

*पुरुष सूक्त*
ऋग्वेद : १०-९०, यजुर्वेद : अध्याय – ३१ 

🌷 ॐ सहस्रशीर्षा पुरुष: सहस्त्राक्ष: सहस्त्रपात् |
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम् || १||

🙏🏻 ‘आदिपुरुष असंख्य सिर, असंख्य नेत्र और असंख्य पाद से युक्त था | वह पृथ्वी को सब ओर से घेरकर भी दस अंगुल अधिक ही था |’

🌷 पुरुष एवेदं सर्वं यदभूतं यच्च भाव्यम् |
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति || २ ||

🙏🏻 ‘यह जो वर्तमान जगत है, वह सब पुरुष ही है | जो पहले था और आगे होगा, वह भी पुरुष ही है, क्योंकि वह अमृतत्व का, देवत्व का स्वामी है | वह प्राणियों के कर्मानुसार भोग देने के लिए अपनी कारणावस्था का अतिक्रम करके दृश्यमान जगतअवस्था को स्वीकार करता है, इसलिए यह जगत उसका वास्तविक स्वरूप नहीं है |’

🌷 एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरुष : |
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपाद्स्यामृतं दिवि || ३ ||

🙏🏻 ‘अतीत, अनागत एवं वर्तमान रूप जितना जगत है उतना सब इस पुरुष की महिमा अर्थात एक प्रकार का विशेष सामर्थ्य है, वैभव है, वास्तवस्वरूप नहीं | वास्तव पुरुष तो इस महिमा से भी बहुत बड़ा है | सम्पूर्ण त्रिकालवर्ती भूत इसके चतुर्थ पाद में हैं | इसके अवशिष्ट सच्चिदानन्दस्वरुप तीन पाद अमृतस्वरूप हैं और अपने स्वयंप्रकाश द्योतनात्मक रूप में निवास करते हैं |’

🌷 त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष: पादोऽस्येहाभवत् पुन: |
ततो विष्वं व्यक्रामत्साशनानशने अभि ||४ ||
 ‘त्रिपाद पुरुष संसाररहित ब्रह्मस्वरूप है | वह अज्ञानकार्य संसार से विलक्षण और इसके गुण-दोषों से अस्पृष्ट है | इसका जो किंचित मात्र अंश माया में हैं वही पुन: -पुन: सृष्टि – संहार के रूप में आता – जाता रहता है | यह मायिक अंश ही देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि विविध रूपों में व्याप्त है | वही सभोजन प्राणी है और निर्भोजन जड़ है | सारी विविधता इस चतुर्थाश की ही है |’

🌷 तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पुरुष: |
स जातो अत्यरिच्यत पश्चादभूमिमथो पुर: ||५ ||

🙏🏻 ‘उस आदिपुरुष से विराट ब्रह्माण्ड देह की उत्पत्ति हुई | विराट देह को ही अधिकरण बनाकर उसका अभिमानी एक और पुरुष प्रकट हुआ | वह पुरुष प्रकट होकर विराट से पृथक देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के रूप में हो गया | उसके बाद पृथ्वी की सृष्टि हुई और जीवों के निवास योग्य सप्त धातुओं के शरीर बने |’

🌷 ॐ यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत |
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्म: शरद्धवि: ||६ ||

🙏🏻 ‘देवताओं ने उसी उत्पन्न द्वितीय पुरुष को हविष्य मानकर उसी के द्वारा मानस यज्ञ का अनुष्ठान किया | इस यज्ञ में वसंत ऋतू आज्य (घृत) के रूप में, ग्रीष्म ऋतू ईंधन के रूप में और शरद ऋतू हविष्य के रूप में संकल्पित की गयी |’

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षण पुरुषं जातमग्रत: |
तेन देवा अजयन्त साध्या ऋषयश्च ये || ७ ||

🙏🏻 ‘वही द्वितीय पुरुष यज्ञ का साधन हुआ | मानस यज्ञ में उसीको पशु-भावना से युप (यज्ञ का खंभा) में बाँधकर प्रोक्षण किया गया, क्योंकि सारी सृष्टि के पूर्व वही पुरुषरूप से उत्पन्न हुआ था | इसी पुरुष के द्वारा देवताओं ने मानस याग किया | वे देवता कौन थे ? वे थे सृष्टि – साधन योग्य प्रजापति आदि साध्य देवता एवं तदनुकूल मंत्रद्रष्टा ऋषि | अभिप्राय यह है कि उसी पुरुष से सभीने यज्ञ किया |’

🌷 तस्माद्यज्ञात सर्वंहुत: संभृतं पृषदाज्यम् |
पशून ताँश्चक्रे वायव्यानारण्यान् ग्राम्याश्च ये || ८ ||

🙏🏻 ‘इस यज्ञ में सर्वात्मक पुरुष का हवन किया जाता है | इसी मानस यज्ञ से दधिमिश्रित आज्य-सम्पादन किया गया अर्थात सभी भोग्य पदार्थों का निर्माण हुआ | इसी यज्ञ से वायुदेवताक आरण्य (जंगली) पशुओं का निर्माण हुआ | जो ग्राम्य पशु हैं, उनका भी 

🌷 तस्माद्यज्ञात सर्वहुत ऋच: सामानि जज्ञिरे |
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत || ९ ||

🙏🏻 ‘पूर्वोक्त सर्वहवनात्मक यज्ञ से ऋचाएँ और साम उत्पन्न हुए | उस यज्ञ से ही गायत्री आदि छन्दों का जन्म हुआ | उसी यज्ञ से यजुष (यजुर्वेद) की भी उत्पत्ति हुई |’

🙏🏻 तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादत: |
गावो ह जज्ञिरे तस्मात तस्माज्जाता अजावय: ||१० ||

🙏🏻 ‘उस पूर्वोक्त यज्ञ से यज्ञोपयोगी अश्वों का जन्म हुआ | जीके दोनों ओर दाँत होते हैं, उनका भी जन्म हुआ | उसीसे गायों का भी जन्म हुआ और उसीसे बकरी – भेड़ें भी पैदा हुई |’

🌷 ॐ यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन् |
मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते ||११ ||

🙏🏻 ‘जब द्वितीय पुरुष ब्रह्मा की ही यज्ञ – पशु के रूप में कल्पना की गयी, तब उसमें किस – किस रूप से, किस – किस स्थान से, किस – किस प्रकार विशेष से उसके अंग- उपांगों की भावना की गयी ? उसका मुख क्या बना ? उसके बाहू क्या बने ? तथा उसके ऊरू (जंघा) और पाद क्या कहे गये ?’

🌷 ब्राह्मणोंऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत: |
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पदभ्यां शूद्रों अजायत || १२ ||

🙏🏻 ‘इस पुरुष का मुख ही ब्राह्मण के रूप में कल्पित हैं | बाहू राजन्य माना गया हैं | ऊरू वैश्य है और चरण शुद्र हैं |’
 चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षो: सूर्यो अजायत |
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणादवायुरजायत || १३ ||
🙏🏻 ‘मन से चन्द्रमा, चक्षु से सूर्य, मुख से इंद्र तथा अग्नि और प्राण से वायु की कल्पना की गयी |’

🌷 नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीष्णॉ द्यौ: समवर्तत |
पदभ्यां भूमिर्दिश: श्रोत्रात्तथा लोकों अकल्पयन || १४ ||

🙏🏻 ‘नाभि से अंतरिक्ष लोक, सिर से द्युलोक, चरणों से भूमि और श्रोत्र से दिशाएँ – इस प्रकार लोकों की कल्पना की गयी |’

🌷 सप्तास्यासन् परिधयस्त्रि: सप्त समिध: कृता: |
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम् || १५ ||

🙏🏻 ‘जब देवताओं ने अपने मानस यज्ञ का विस्तार करते हुए वैराज पुरुष (परमात्मा) को पशु के रूप में कल्पित किया, तब इस यज्ञ की सात परिधियाँ हुई और इक्कीस समिधाएँ |’

🌷 यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् |
ते ह नाकं महिमान: सचन्त यत्र पूर्व साध्या: सन्ति देवा: ||१६||

🙏🏻 ‘प्रजापति के प्राणरूप विद्वान देवताओं ने अपने मानस संकल्परूप यज्ञ के द्वारा यज्ञस्वरूप पुरुषोत्तम का यजन (आराधन, याग) किया | वही धर्म है सर्वश्रेष्ठ एवं सनातन, क्योंकि सम्पूर्ण विकारों को धारण करता हैं | वे धर्मात्मा भगवान के माहात्म्य, वैभव आदि से सम्पन्न होकर परमानंद-लोक में समा गये | वहीँ प्राचीन उपासक देवता विराजमान रहते हैं |’

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