योग क्या और किसलिए?
योग क्या और किसलिए?
"एतावान् योग आदिष्टो मच्छिष्यैः सनकादिभिः।
सर्वतो मन आकृष्य मय्यद्धा$$वेश्यते यथा।।"
(11.13.14)
मेरे सनकादिक परमर्षियों ने योग का यही स्वरुप बताया है कि साधक अपने मन को सब ओर से खींचकर विराट आदि में नहीं, साक्षात् मुझ में ही पूर्णरूप से लगा दें।
"एतावानेव योगेन् समग्रेणेह योगिनः।
युज्यते$भिमतो ह्यर्थो यदसंगस्तु कृत्स्नशः।।"
(3.32.27)
सम्पूर्ण संसार मे आसक्ति का अभाव हो जाना--बस यही योगियों के सब प्रकार के योग-साधन एकमात्र अभीष्ट फल है।
भगवान श्रीकृष्ण योग का बस, इतना ही स्वरुप बतलाते है कि मन को सब ओर से खींचकर साक्षात् भगवान मे प्रविष्ट कर दिया जाय।
मन को लगाने का उपाय चाहे कोई भी हो, जीवों का मन स्वभाव से ही जड़ विषयों की ओर ही दौड़ता है और उन्हीं मे लगता भी है।
यदि योग-साधना के द्वारा भी मन को जड़ विषयों में ही लगाया तो सारा प्रयास व्यर्थ ही समझना चाहिए।
सविकल्प समाधि पर्यन्त जितनी भी स्थितियाँ हैं, सब-की-सब कुछ-न-कुछ जड़ता लिए हुए हैं।
योग की रीति से निर्विकल्प स्वरुप से अवस्थान ही अखण्ड निर्विकल्प समाधि है, और वास्तव में वही विशुद्ध चेतन की स्थिति भी है।
कर्मयोग से, अष्टांगयोग से, भक्ति योग से अथवा ज्ञान योग से वही स्थिति प्राप्त करनी है।
भगवान के निर्गुण-निराकार अथवा सगुण साकार स्वरुप की अनुभूति किसी भी जड़ स्थिति में नहीं होती, उसके लिए विशुद्ध चेतन की स्थिति अनिवार्य है।
जीव और भगवान का उसी स्थिति मे वास्तविक मिलन होता है, इसलिए उसे योग के नाम से कहते हैं।
दूसरे श्लोक में समग्र योग का उद्देश्य बतलाया गया है।
योग के द्वारा होता क्या है?
समग्र प्रकृति और प्राकृत जगत से असंगता।
संग ही समस्त अनर्थों का मूल है।
यह प्रकृति और प्राकृत पदार्थ मैं हूँ, अथवा यह मेरे हैं, यही संग का स्वरुप है।
व्यवहार में दो प्रकार के पदार्थ देखे जाते हैं---
एक --- प्राकृतिक।
दूसरे--- प्रातीतिक।
पृथ्वी एक प्राकृतिक पदार्थ है---यह केवल प्रकृति की है अथवा भगवान की है।
यह न किसी के साथ गयी है और न जायेगी।
फिर भी लोग इसे अपना मान बैठते हैं ,और बड़े अभिमान के साथ कहते हैं कि इतनी पृथ्वी मेरी है।
यह मेरे मन की भावना नितान्त प्रातीतिक है और यही समस्त दुःखो का मूल भी है।
इसी प्रकार स्त्री पुत्र, धन, शरीर, मन आदि के सम्बंध में भी समझना चाहिए।
इनके प्रति अहंता-ममता जोड़ लेना ही संग है।
जब योग के द्वारा बहिर्मुखता घटती है और अन्तर्मुखता की वृद्धि होती है,तब स्वयं ही बाह्य पदार्थों से आसक्ति छूटने लगती है और अन्ततः विशुद्ध चित् स्वरुप एवं असंग आत्मस्वरूप मे स्थिति हो जाती है।
जब तक असंगता प्राप्त नहीं होती, तब तक योग का लक्षण अपूर्व ही समझना चाहिए।
इन दोनों श्लोकों में अन्तर्मुखता की भगवान में मन का लग जाना बताया गया है,और योग का स्वरुप बतलाया है---
"समस्त प्रकृति और प्राकृत सम्बन्धों से अलग हो जाना।"
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